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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
इत्यादि दुर्गन्धमय पदार्थों से निर्मित चमड़े की चादर से ढंकी यह देह है। श्रीमद् राजचन्द्र के शब्दों में 711_
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खाण मूत्र ने मल नी, रोग जरा नुं निवास नुं धाम । काया एवी गणी ने, मान त्यजी ने कर सार्थक आम ।।
न जाने कब आरोग्य बिगड़ जाए, सुरूपता कुरूपता में परिवर्तित हो जाए। राजा श्रेणिक ने राजगृही के राजपथ से गुजरते हुए नगर के बाहर तीव्र दुर्गन्ध का अनुभव किया। खोजबीन के पश्चात् ज्ञात हुआ दुर्गन्धा नामक बाला की देह से यह गन्ध फैल रही थी । प्रभु महावीर के समक्ष इस घटना की चर्चा करने पर प्रभु ने कहा - "राजन् ! यह दुर्गन्धा कुछ ही समय में दुर्गन्ध से मुक्त होकर सौन्दर्य - प्रतिमा बनकर निखरेगी और भविष्य में तुम्हारी रानी बनेगी।" कुरूपता सुरूपता में और सुरूपता कुरूपता में परिवर्तित होती है। अथाह रूपराशिसम्पन्न राजकुमार चक्रवर्ती की देह कालान्तर में सोलह रोगों से ग्रस्त हो गई थी, अतः, हे जीव ! देह की सुन्दरता का क्या अभिमान करना। 712
2. सत्ता, सम्पत्ति, सुविधा, साधन, सत्कार, सम्मान, स्वजन, साथी, स्मृति आदि में अहंकार पुष्ट होने पर विचार करना चाहिए । हे आत्मन्! पुण्य-कर्म के उदय से तुझे ये सब अनुकूलताएँ प्राप्त हुई हैं। पाप-कर्म के उदय से प्रतिकूलताएँ मिलती हैं। पुण्य और पाप – दोनों कर्म हैं, जड़ तत्त्व हैं। जीव और जड़ सर्वथा भिन्न तत्त्व हैं। जड़ तत्त्व के आधार पर अपना मूल्यांकन करना अज्ञान है । " जीव सदा से शुद्ध और अरूपी है, परमाणुमात्र भी तीन काल में मेरा होता नहीं", फिर बाह्य साधन के संग्रह और सत्कार से तू क्यों मान करता है । "
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3. जहाँ मद (अहंकार) है, दूसरों से अपने को उच्च समझने का भाव है, वहाँ मृदुता नहीं, जड़ता है। जहाँ जड़ता है, वहाँ कठोरता है, वहाँ हृदयहीनता है। ऐसे व्यक्ति के हृदय में आत्मीयता या करुणा जग नहीं सकती है। इसके विपरीत, जहाँ निरभिमानता है, विनम्रता है, उसमें अपने को दूसरों से बड़ा समझने का भाव नहीं आता, दूसरों को भी अपने ही
711 तत्त्वज्ञान, पृ. 149
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कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. साध्वी हेमप्रज्ञा, पृ. 140
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समयसार, गाथा 38
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