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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व विनम्रता से जीतने का प्रयास करना चाहिए। "अभिमान को जीत लेने से मृदुता (नम्रता) जाग्रत होती है" 706 और "निरभिमानी मनुष्य जन और स्वजन सभी को सदा प्रिय लगता है । वह ज्ञान, यश और संपत्ति प्राप्त करता है तथा अपना प्रत्येक कार्य सिद्ध कर सकता है। 707 अगले अध्याय में मान पर विजय किस प्रकार से प्राप्त की जाए - इस बात की विस्तृत व्याख्या करेंगे। मान पर विजय के उपाय फल-फूलों से लदा हुआ पेड़ जैसे सहज ही झुक जाता है, वैसे ही गुणों के भार से आत्मा विनम्र होती है, झुक जाती है, पर अहंकार इंसान की एक बहुत बड़ी कमजोरी है, इसी अहंकार के पोषण में इंसान सब-कुछ समर्पित करने को तैयार हो जाता है । सत्ता, सम्पदा और शक्ति को पाकर भले ही हम अहंकार करने लगें, पर इसका स्थायित्व नहीं है । भारतीय - संस्कृति लघुता से प्रभुता पाने की संस्कृति है । दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि मान विनय का नाश करने वाला है,708 अतः मान पर विजय मृदुता से प्राप्त की जा सकती है। अनुदित मान का निरोध और उदय प्राप्त का विफलीकरण यह मान - विजय है। मान - विजय से मान के कारण होने वाली हानियों से सहज ही बचा जा सकता है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है – “मानविजय से विनय गुण की प्राप्ति होती है, मान - वेदनीयकर्म नहीं बंधता है तथा पूर्व में बंधे हुए कर्मों की निर्जरा हो जाती है। 710 709 मान को जीतना एक दुष्कर कार्य है, फिर भी निम्न प्रकार से मान पर विजय प्राप्त कर सकते हैं सुन्दरता का गर्व होने पर अशुचि भावना का चिन्तन करना चाहिए। शरीर क्या है ? अस्थि मज्जा, रक्त, मल-मूत्र 1. शरीर की स्वस्थता, 706 माणविजए णं मद्दवं जणयई । 707 उत्तराध्ययनसूत्र - 29/68 सयणस्स जणस्स पिओ, णरो, अमाणी सदा हवदि लोए । गाणं जसं च अत्यं, लभदि सकज्जं च साहेदि । । - भगवती आराधना, 1379 708 माणो वियणासणो । दशवैकालिक- 8/38 709 710 - माणं मद्दवया जिणे । वही - 8 / 39 माणं विजएणं मद्दवं जणयइ, माण वेयणिज्जं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निज्जरेइ । - उत्तराध्ययनसूत्र - 29/69 Jain Education International 337 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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