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________________ 336 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व अनदेखा कर देता है। उसका मात्र उद्देश्य अपने स्तर {Status} को ऊँचा उठाना होता है और इस कारण वर्तमान समय में उधारी, जमाखोरी और रिश्वत जैसी बुराईयाँ अपने जीवन के स्तर को ऊपर उठाने के लिए ही की जा रही हैं। जब व्यक्ति उधारी को चुका नहीं पाता और रिश्वत लेते पकड़ा जाता है, तो अपने मान-सम्मान को ठेस न लगे, इसलिए वह आत्महत्या जैसे कृत्य भी सहजता से कर लेता है। अहंकार व्यक्ति को अंधा बना देता है। ऐसा व्यक्ति तनाव-ग्रस्त रहता है, शक्ति तोले बिना चुनौती देकर जब परास्त होता है, तब मरण हेतु उद्यत होता है। अभिमानी दुर्गति को आमंत्रण देता है तथा कालान्तर में वह उस शक्ति से च्युत हो. जाता है। 7. संघर्ष और युद्ध का कारण मान - प्राचीन और वर्तमान समय में संघर्ष और युद्ध का एक कारण अहंकार और मान भी हैं। महाभारत का भीषण युद्ध अहंकार का ही परिणाम है। श्रीकृष्ण ने शान्ति स्थापित करने के लिए कौरवों को कहा कि मात्र पांच राज्य ही पाण्डवों को दे दो, तो प्राणनाश किए बिना ही शान्ति हो जाएगी, परन्तु अहंकार की अंतर्गजना से बहरे कानों में शान्ति–प्रस्ताव की शब्दावली प्रवेश ही नहीं कर पाई। दुर्योधन ने तिरस्काररूपी शब्दों में कहा - "मैं पाण्डवों के लिए सुई की नोंक जितनी धरती का भी परित्याग करने के लिए तैयार नहीं हूँ।"705 अहंकार से भरे इस उत्तर के उपरान्त कुरूक्षेत्र के मैदान में जो घटित हुआ, उसे हम सब जानते हैं। वर्तमान समय में अमेरिका और रूस अपने-अपने बल के अहंकार में कैसे-कैसे विनाशक अस्त्र-शस्त्रों का उत्पादन कर रहे हैं और युद्ध को प्रेरित कर रहे उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि गुणों का गर्व व्यक्ति को अवगुणी बनाता है, धन का गर्व निर्धन बनाता है, रूप का गर्व कुरूप बनाता है। मेरे पास बहुत धन है, ऐश्वर्य है, मैं दिन को रात और रात को दिन बना सकता हूँ -ऐसी अहंकारी भाषा बोलने वाले को भी याद रखना चाहिए कि जब रावण, प्रजापालराजा, दुर्योधन, हिटलर आदि भी अपना अस्तित्व टिका न पाए, तो हमारी तो बात ही क्या ? अतः, अहंकार को 705 यावद्धि सूच्यातीक्ष्णाया विध्येदग्रेण माधव। तावदप्यपरित्याज्यं भूमेर्नः पाण्डवान्प्रति।। – महाभारत- 125/26 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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