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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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जो अभिमान करता है, अपने कुल का मान करता है, उसे नीच गति की प्राप्ति होती है। भगवान् महावीर स्वामी ने मरीचि के भव में अभिमान किया था ...... मेरे दादा प्रथम तीर्थंकर, मेरे पिता प्रथम चक्रवर्ती, ....मैं प्रथम वासुदेव बनूंगा, अहो! मेरा कुल उत्तम है। कुल के अभिमान के कारण मरीचि को महावीर के भव में देवानन्दा ब्राह्मणी की कुक्षि में अवतरित होना पड़ा। 102 उत्तराध्ययनसूत्र में भी कहा है- 'माणेण अहमागई', अर्थात् मान के कारण ही नीच गति प्राप्त होती है।
4. मान गुणों का नाशक और तिरस्कार का पात्र बनाता है -
अहंकारी व्यक्ति सर्वत्र तिरस्कार का पात्र बनता है, उसे कोई नहीं चाहता है, क्योंकि वह स्वयं अपने को बड़ा मान बैठता है। अहंकार एक ऐसा विषवृक्ष है, जो बिना बोए ही उग जाता है और जीवन में रहने वाले सारे सद्गुणों के उद्यान को बर्बाद कर देता है। रावण एक हजार विद्याओं का जानकार था और प्रभु-भक्ति के कारण उसने नामगोत्र का उपार्जन किया, पर सती सीता के अपहरण और अभिमान के कारण उसके सारे सद्गुणों का नाश हो गया और वह लोक में तिरस्कार का पात्र बना। दशवैकालिकसूत्र में कहा है -"क्रोध, मान, माया और लोभ दुर्गुण हैं, अतः इनका त्याग करो।"704
5. दुःख का कारण मान -
कला, बुद्धि आदि जिस-जिस क्षेत्र में व्यक्ति अपने को निपण समझने लगता है, उस-उस क्षेत्र में उसकी आगे बढ़ने की क्षमता घटने लगती है। ईर्ष्या, द्वेष, कलह, लालच, ममत्व आदि अनेक बुराइयाँ धीरे-धीरे बढ़ती रहती हैं, जिसके फलस्वरूप उत्तरोत्तर दुःख बढ़ता है।
6. मान मृत्यु का कारण भी बनता है -
अभिमानी व्यक्ति अपने-आपको महान् और श्रेष्ठ समझता है। जब अभिमान का नशा चढ़ा हुआ रहता है, तो वह स्वजन-परिजनों को भी
702 श्री कल्पसूत्र, महावीर प्रभु के सत्ताईस भव 703 उत्तराध्ययन 704 दशवैकालिकसूत्र- 8/38
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