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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
मान के दुष्परिणाम निम्न हैं - 1. मान से विनय-गुण नष्ट होता है -
दशवैकालिकसूत्र में कहा है –'माणो विणय नासणो' 696, अर्थात् मान विनय-गुण का नाश करता है और विनय नष्ट होने पर व्यक्ति धर्म करने के लिए योग्य नहीं रहता है, क्योंकि धर्मरूपी महल में प्रवेश करने का द्वार विनय है। 'विनय धम्मो मूलो- धर्म का मूल विनय कहा गया है। कषाय-इन्द्रिय विनयनं विनयः698, अर्थात जिसके द्वारा कषाय एवं इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखा जाए, वह विनय कहलाता है। जो साधक गर्व, क्रोध, माया और प्रमादवश गुरुदेव के समीप विनय नहीं सीखता, उसके अहंकारादि दुर्गुण उसके ज्ञानादि वैभव के विनाश का कारण बन जाते हैं; जैसे बांस का फल उसी के विनाश के लिए होता है। अतः, मान के कारण मनुष्य साधना की ओर प्रगति नहीं कर सकता।699
2. पाप का मूल अभिमान
तुलसीदासजी ने कहा है - "दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान", अभिमानी व्यक्ति स्वयं को सब कुछ समझता है। उसे अपने सामने अन्य सभी लोग बौने दिखाई देते हैं। अभिमानी जमाली ने भगवान् महावीर स्वामी के सिद्धांतों को भी गलत माना और कहा कि वह जो कहता है, वही सत्य है। कडे-कडे -यही सत्य है, परमात्मा का सिद्धान्त -'कडेमाणे कडे' झूठा है। जमाली अभिमान के अधीन बन गया और उसका पतन हो गया।00 मद आते ही आत्मा पतन की ओर बढ़ती चली जाती है और अहंकार से चिकने धर्मों का बंध होता है।
3. अभिमान से नीच गति की प्राप्ति -
696 दशवैकालिकसूत्र- 8/38
उत्तराध्ययनसूत्र 698 उत्तराध्ययनसूत्रटीका -पत्र 16 (शान्त्याचार्य)
उत्तराध्ययन, सूत्र- 9/1/1 भगवतीसूत्र श.1/उ.1 ण बाहिरं परिभवे, अत्ताणं ण समुक्कसे, सुयलाभे ण मज्जिज्जा, जच्चा तवस्सिबुद्धिए। - दशवैकालिकसूत्र- 8/30
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