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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
संयोगों की प्राप्ति में मान-मनोविकार का उदय विशेष रूप से होता है । उच्च-कुल, स्वस्थ शरीर, लावण्यवती स्त्री, प्रतिभाशाली सन्तान, सुख-सुविधा, समाज में सत्कार - सम्मान, कार्य में प्रशंसा, कलाकौशल में प्रवीणता आदि कारणों से अभिमान आकाश को छूने लगता है। तप, ज्ञान आदि शक्तियों की प्राप्ति अज्ञानावस्था में मदान्ध बना देती है। अभिमानी के पांव धरती पर नहीं टिकते। वह अपने समक्ष अन्य को तुच्छ मानता है । दर्प एवं दीनता - दोनों मान हैं । प्राप्ति में दर्प और अभाव में दीनता होती है। अपने-आपको बड़ा या श्रेष्ठ मानने की भांति अपने-आपको तुच्छ मानना भी अहंकार है 1
अहंकारी स्वयं को ऊँचा प्रदर्शित करने हेतु अन्य व्यक्तियों का अवर्णवाद (निन्दा) करता है, अन्य व्यक्तियों का तिरस्कार कर उन्हें शत्रु बना लेता है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि संसार में अपने समय की बड़ी-से-बड़ी हस्तियों का अहंकार भी समय आने पर चूर-चूर हुआ है, उन्हें अपमान और तिरस्कार सहन करना पड़ा है। अहंकार का जब अतिरेक हो जाता है, तब दो और चार जैसी सीधी बात भी समझ में नहीं आती। प्रजापाल राजा ने अहंकार के कारण अपनी पुत्री मैनासुन्दरी का विवाह कोढ़ी पुरुष के साथ कर दिया। 5 मंत्री, रानी और सभाजनों - सभी ने मना किया, पर अहंकार के कारण उन्हें कोई समझा न सका । श्रीकृष्ण दुर्योधन जैसे अभिमानी को समझा नहीं सके थे। रावण को भी उसके भाई विभीषण ने और रानी मन्दोदरी ने बहुत समझाया था कि वह सीता को वापस लौटा दे, परन्तु रावण ने किसी की बात नहीं सुनी। खंदक ऋषि ने काचरे के छिलके निकलवाने पर अहंकार किया था, इस कारण उन्हें दूसरे भव में स्वयं की चमड़ी उतरवाना पड़ी। रामायण, महाभारत, आगमशास्त्र, इतिहास आदि के अवलोकन से ज्ञात होता है कि मानवृत्ति एवं अहंकार मानव विकास में सदा बाधक बनकर ही रहा है।
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श्रीपालमयणा चरित्र
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