________________
जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
1. दूसरों के द्वारा अपनी प्रशंसा सुनकर अपने को महान् समझने की प्रवृत्ति होना ।
2. भौतिक वस्तुओं व सुखों में विशेष ममत्व होना ।
3. पूर्वसंचित मान - मोहनीय कर्मप्रकृति का उदय होना ।
4. अनुकूल परिस्थितियों के हमेशा बनी रहने का मिथ्या भुलावा होना । 5. अपने से ऊँचे और बड़े गुणवानों के प्रति श्रद्धा व आदर का भाव न होना ।
गौतम स्वामी ने पूछा - "हे प्रभो ! मान किन - किन पर प्रतिष्ठित है, निर्भर है ?" प्रभु ने कहा "मान चार बातों पर निर्भर है।" उसके चार प्रकार हैं – आत्मप्रतिष्ठित, परप्रतिष्ठित, तदुभयप्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठित ।
,691
-
691
1. आत्मप्रतिष्ठित
जो मान अपने किसी गुण पर या अपनी किसी वस्तु पर प्रतिष्ठित होता है, वह आत्मप्रतिष्ठित - मान कहलाता है, जैसे – 'मैं कुशल वक्ता हूँ, मैं बहुत बड़ा कलाकार हूँ, मेरे पास नए-पुराने ग्रंथों की सुविशाल लायब्रेरी है, मेरे पास बस, हेलिकॉप्टर, हवाई - जहाज़ आदि हैं।
2. परप्रतिष्ठित जो मान दूसरों की हीनता पर टिका हो, वह परप्रतिष्ठित-मान होता है, जैसे दूसरे लोग निम्न जाति में उत्पन्न हुए हैं, कमजोर हैं, निरक्षर हैं, निर्धन हैं, डरपोक हैं। उनसे विपरीत, मैं उच्च जाति में उत्पन्न हुआ हूँ, बलवान् हूँ ।
-
3. तदुभयप्रतिष्ठित
जो मान अपनी उच्चता और दूसरों की हीनता पर एक साथ आधारित हो, वह तदुभयप्रतिष्ठित है, जैसेवह पापी है, मैं पुण्यात्मा हूँ, वह हिंसक है, मैं अहिंसक हूँ, वह निर्दयी है, मैं दयालु हूँ आदि ।
331
-
Jain Education International
4. अप्रतिष्ठित जो मान बिना किसी आधार के स्वाभाविक-सा हो, उसे अप्रतिष्ठित मान कहेंगे, जैसे कोई अपने-आपको सबसे बड़ा आदमी समझे, भले ही उसमें बड़प्पन के कोई गुण न हों। यह अविवेक की सीमा है, एक प्रकार का नशा है, बेहोशी की अवस्था
उपत्तिट्टिते माणे पण्णत्ते, तं जहा
आतपट्ठिते, परपतिट्ठिते, तदुभयपतिट्ठिते, अपतिट्ठिते । • स्थानांगसूत्र- 4 / 1 /77
-
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org