SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 336
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 330 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 2. वास्तु के कारण - घर, दुकान, फर्नीचर आदि के कारण मान करना। 3. शरीर के कारण - शरीर की सुन्दरता, लावण्य, श्रेष्ठ स्वस्थ शरीर के प्राप्त होने पर मान करना। 4. उपधि के कारण - सामान्य साधन-सामग्री, कार, मोटर, वाहन-सुविधा आदि अनुकूल होने पर मान करना। .. स्थानांगसूत्र में मान-उत्पत्ति के आठ एवं दस स्थानों का भी उल्लेख है। निम्न दस कारणों से पुरुष अपने-आपको 'मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूँ'- ऐसा मानकर अभिमान करता है। मद के आठ प्रकारों में जाति, कुल, बल आदि श्रेष्ठ होने पर वे मानोत्पत्ति का कारण बनते हैं। 1. मेरी जाति सर्वश्रेष्ठ है – इस प्रकार जाति के मद से। 2. मेरा कुल सबसे श्रेष्ठ है - इस प्रकार कुल के मद से। 3. मैं सबसे अधिक बलवान् हूँ - इस प्रकार बल के मद से। 4. मैं सबसे अधिक रूपवान् हूँ - इस प्रकार रूप के मद से। 5. मेरा तप सबसे उत्कृष्ट है - इस प्रकार तप के मद से। 6. मैं श्रुत-पारंगत हूँ – इस प्रकार शास्त्रज्ञान के मद से। 7. मेरे पास सबसे अधिक लाभ के साधन हैं – इस प्रकार लाभ के मद से। 8. मेरा ऐश्वर्य सबसे बढ़ा-चढ़ा है – इस प्रकार ऐश्वर्य के मद से। 9. मेरे पास नागकुमार या स्वर्णकुमार देव दौड़कर आते हैं - इस प्रकार के भाव से। 10. मुझे सामान्यजनों की अपेक्षा विशिष्ट अवधिज्ञान और अवधिदर्शन उत्पन्न हुआ है - इस प्रकार के भाव से। उपर्युक्त प्रकार के भावों से मान उत्पन्न होता है। मानोत्पत्ति के निम्न कारण भी हो सकते हैं - 690 दसहिं ठाणेहिं, अहमंतीति थंभिज्जा तं जहा - जातिमएण, वा, कुलमएण...... में अंतियं हव्वमागच्छंति, पुरिसधम्मातो वा मे उत्तरिए, आहोधिए, णाणदंसणे समुप्पणें। - स्थानांगसूत्र- 10/12 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy