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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेस्कतत्त्व
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1. अनंतानुबन्धी-मान - अनंतानुबन्धी मान सबसे विकट है। यह
पत्थर से बने स्तंभ के समान है। बहुत कोशिश करने से भी स्तंभ झुकता नहीं है, टूट जाता है, पर मुड़ता नहीं है, उसी प्रकार अनंतानुबन्धी मान से युक्त जीवात्मा कितने ही प्रयत्न किए जाने पर भी अभिमान नहीं छोड़ता है। वह प्राण न्यौछावर कर देता है, परन्तु समझने-झुकने और माफी मांगने को तैयार नहीं होता है। "पत्थर के खंभे के समान जीवन में कभी नहीं झुकने वाला अहंकार आत्मा को नरकगति की ओर ले जाता है। 687
2. अप्रत्याख्यानी-मान - अप्रत्याख्यानी-मान अस्थि के समान कहा
गया है। जिस प्रकार अस्थि बहुत सारे उपाय करने पर भी महा कष्ट एवं महामुश्किल से मुड़ती है, उसी प्रकार अप्रत्याख्यानी-मान से युक्त जीवात्मा बहुत कठिनाई से समझता है, झुकता है।
3. प्रत्याख्यानी-मान - प्रत्याख्यानी-मान लकड़ी के समान है।
नेतर की डंडी जल्दी मुड़ जाती है, परन्तु लकड़ी की डंडी जल्दी नहीं मुड़ती है, बहुत कोशिश करने पर मुड़ती है। ठीक उसी प्रकार, प्रत्याख्यानी-मान वाला जीव जल्दी नहीं झुकता है।
4. संज्वलन-मान - मान व्यक्ति को नमने से रोकता है, खमने से
टोकता है। चार प्रकार के मान में से संज्वलन-मान नेतर की डंडी के समान कहा गया है। जिस प्रकार नेतर की डंडी आसानी से मुड़ जाती है, उसी प्रकार संज्वलन-मान वाला व्यक्ति भी आसानी से समझ जाता है और मद का त्याग कर देता है।
मानोत्पत्ति के कारण
स्थानांगसूत्र 688 और प्रज्ञापनासूत्र 689 में मानोत्पत्ति के चार कारण बताए गए हैं
1. क्षेत्र के कारण- खेत, भूमि आदि अधिक होने पर मान करना।
687 स्थानांगसूत्र - 4/2 688 चउहि ठाणेहिं माणुप्पती सिता, तं जहा -खेत्तं, पडुच्चा, वत्थु पडुच्चा,
सरीरं पडुच्चा, उवहि पडुच्चा। एवं णेरइपाणं जाव वेमाणियाणं। -स्थानांगसूत्र- 4/1/81 689 प्रज्ञापनासूत्र, पद 14, सूत्र 961
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