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________________ 328 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 7. परपरिवाद - अहंकार की वह मनोदशा, जिसके वशीभूत मनुष्य दूसरों की हीनता प्रदर्शित करता है। 8. उत्कर्ष - उत्कृष्टता की भावना, 684 अथवा अपनी ऋद्धि का प्रदर्शन उत्कर्ष मान है। 9. अपकर्ष - अभिमानपूर्वक हिंसक-प्रवृत्ति में संलग्न होना अथवा अन्य किसी को उस क्रिया में प्रवृत्त करना अपकर्ष है। 10. उन्नत – मानवश नीति का त्याग करके अनीति करना। 11. उन्नाम – वन्दनीय को वन्दन न करना, नमस्कार करने वाले को प्रति-नमस्कार नहीं करना। 12. दुर्नाम - दोषपूर्ण नमन, वंदनीय को अभिमान, अनिच्छा एवं अविधि से वन्दन करना। कषायपाहुडसूत्र685 में मान के दस पर्याय उल्लेखित हैं – मान, मद, दर्प, स्तम्भ, उत्कर्ष, प्रकर्ष, समुत्कर्ष, आत्मोत्कर्ष, परिभव, उत्सिक्त। इन दस पर्यायों में चार पर्याय ‘भगवतीसूत्र' में निर्दिष्ट पर्यायों से भिन्न हैं। • प्रकर्ष- अपनी विद्वत्ता, विभूति अथवा ख्याति को प्रकट करना। • समुत्कर्ष - उत्कर्ष और प्रकर्ष के लिए समुचित पुरुषार्थ करना। • परिभव – दूसरे का तिरस्कार या अपमान। • उत्सिक्त - आत्मोत्कर्ष से उद्धत या गर्वयुक्त होना। अहंभावं की तीव्रता और मन्दता के अनुसार मान के चार भेद 686_ 684 80 सूत्रकृतांग- 1/2/51 685 कषाय चूर्णि, अ 9, गाथा 87 का हिन्दी अनुवाद क) तिनिशलता-काष्ठास्थिक-शेलस्तंभोवमो मानः। – प्रथम कर्मग्रन्थ, गाथा 19 ख) चत्तारि थंभा पण्णत्ता तं जहा 1. सेलथंभे, 2. अट्ठियों, 3. दारूथंभे, 4. तिणिसलाताथंभे। - स्थानांगसूत्र -4/2/293 ग) समवायांगसूत्र- 16/111 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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