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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व है, फिर चारों एक साथ हों, तो कहना ही क्या ? अर्थात् घोर अनर्थ होगा । मैं अतुल वैभवसम्पन्न हूँ - ऐसा अभिमान ऐश्वर्यमद कहलाता है । भगवान् महावीर एक बार दशार्णपुर नगर के बाहर उद्यान में पधारे। राजा दशार्णभद्र 680 हाथी पर सवार होकर विशाल लाव-लश्कर से सुसज्जित चतुरंगिणी सेना, नाना प्रकार के नृत्यगान - वृंद एवं वाद्ययन्त्रों सहित ठाठ-बाट के साथ सोना-चाँदी तथा रत्नों का दान देता हुआ प्रभु के पास पहुंचा और उनका वंदन किया। राजा को गर्व था कि जिस समृद्धि के साथ मैंने प्रभु को वंदन किया, ऐसा वन्दन करने को चक्रवर्ती तथा शक्रेन्द्र भी समर्थवान् नहीं हैं । अवधिज्ञान से शक्रेन्द्र ने जब विशाल जुलूस के साथ गर्वोन्नत राजा को देखा, तब तत्काल इन्द्र अपनी पूर्ण व्यवस्था के साथ प्रभु के वंदन हेतु आए, इन्द्र के विमान को देख राजा विस्मय-मुग्ध हो गया - "कैसा अद्भुत विमान । हजारों हाथी, एक-एक ऐरावत हाथी की आठ-आठ सूँड । प्रत्येक सूँड पर विराट कमल । कमल की कर्णिकाओं पर नृत्य करती अप्सराएँ ।" दशार्णभद्र का चेहरा निस्तेज हो गया। उसका अहंकार बर्फ की तरह गलने लगा, ऐश्वर्यमद बिखर गया । संयमरंग में उसका मन रंग गया और वह प्रभुचरणों में दीक्षित हो गया । 3. दर्प बल से उत्पन्न अहंकार 81 अथवा गर्व में होकर दुष्टता का परिचय देना दर्प है चूर I 680 681 682 683 - 5. गर्व 682 4. स्तम्भ नम्रता का अभाव, न झुकने की मनोवृत्ति स्तम्भ है । कषायपाहुड़ में अनर्गल या वचनालाप को स्तम्भ कहा गया है। गर्व है। - 327 Jain Education International 683 शक्ति का अहंकार " या जाति आदि का अहंकार करना 6. आत्मोत्कर्ष भाव आत्मोत्कर्ष है । अपनी विद्वत्ता, विभूति या ख्याति की उच्चता का सामायिकसूत्र, गाथा 1 दर्पो बलकृतः 1 - तत्त्वार्थसूत्राधिगम, भाष्यवृत्ति - 8 / 10 की टीका स्तंभनात् स्तंभः अवनतेरभावात् । - तत्त्वार्थसूत्राभिगम, भाष्यवृत्ति - 8 / 10 की टीका गर्यो जात्यादिः । - वही For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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