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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
गर्व होता है। कई बार अचानक लाभ हो जाने पर भी व्यक्ति घमण्डी हो जाता है, इस कारण वह दूसरों का अपमान भी कर देता है। लाभमद पतन का कारण है। व्यक्ति द्वारा लाभ का सदुपयोग करने पर ही वृद्धि की प्राप्ति होती है, वरना नाश हो जाता है, अतः लाभमद त्याज्य है। लाभ लोभ को बढ़ाता है। कहा भी है
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लाहा लोहो पवड्ढई - उत्तराध्ययनसूत्र - 8 /17
सुभूम चक्रवर्त्ती 79 षट्खण्डाधिपति थे । चक्रवर्ती पदभोक्ता, चौदह रत्नों के स्वामी सुभूम को अतुल सम्पदा प्राप्त होने पर भी संतोष नहीं था । सप्तम खण्ड जीतने की उनकी भावना बलवती बनने लगी । देववाणी से इन्कार होने पर भी विजयोन्माद में उनके कदम बढ़ चले । अथाह जलराशि पर तैरता देवाधिष्ठित जलयान अचानक एक देव के मन में विचार आया 'यदि मैं कुछ क्षणों के लिए अपना स्थान छोड़ दूँ, तो क्या हानि हो ?' यही विचार उन समस्त देवों के मन में उसी समय आया, जिन्होंने जहाज संभाला हुआ था। देवों के जहाज से हटते ही वह जलयान सागर की अतल गहराई में जा पहुंचा और सातवें खण्ड की विजय का स्वप्न लिए सुभूम चक्रवर्ती अगली जीवन-यात्रा पर चल पड़ा।
(viii) ऐश्वर्यमद
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धन, धान्य, जमीन, जायदाद आदि का मद करना ऐश्वर्यमद है । ये चीजें अस्थायी हैं; सदैव बनी नहीं रहती, अतः इनका मद नहीं करना चाहिए। सम्पत्ति व सत्ता का मोह व्यक्ति को भ्रान्त किए बिना नहीं रहता है, क्योंकि सम्पत्ति आसक्ति को एवं सत्ता अहंकार को जन्म देती है। इस संबंध में एक विद्वान् ने कहा है
यौवनं धन-सम्पत्तिः प्रभुत्वमविवेकिता । एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयः ।।
अर्थात्, युवावस्था हो, प्रचुर धनराशि हो, उस पर अपनी ही सत्ता हो और विवेक का अभाव हो - इन चारों में से एक भी अवगुण अनर्थकारी
679 कथा-संग्रह
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