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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
पाँच-पाँच ध्वजाएं अपने समक्ष रखते थे। एक बहन ने वंदन कर उनसे पूछा- "उपाध्यायजी! गौतम स्वामी कितने विद्वान् थे ?" यशोविजयजी गंभीर स्वर में कहने लगे "वे तो महाविद्वान् थे। वे ज्ञान के सिन्धु थे, हम तो बिन्दु भी नहीं हैं ।" बहन ने हाथ जोड़कर नम्र निवेदन किया "प्रभो! फिर वे अपनी व्याख्यान सभा में कितनी ध्वजाएँ रखते थे ?" सहज भाषा में किए गए इस प्रश्न ने श्री यशोविजयजी को झकझोर दिया। उन्हें अपने अहंकार का बोध हुआ ।
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(vi) तपमद
तप अपूर्व कल्पवृक्ष है, मोक्ष - सुख की प्राप्ति इसका फल है, पर तप का मद करना अच्छा नहीं है । कुछ तपस्याएँ करके व्यक्ति अपने को तपस्वी समझने लगता है, जो विकृति का कारण है। घमण्ड से तपस्या करने वालों की जो शारीरिक शक्ति है, वह क्षणभर में ही समाप्त हो जाती है । करोड़ों की कीमत का माल कौड़ियों में बिक जाता है। तपस्वियों की निन्दा करना, आशातना करना भी तपमद की कोटि में आता है।
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कुरगडु मुनि को क्षुधावेदनीय कर्म के उदय से वे भूख को सहन नहीं कर सकते थे। संवत्सरी' जैसे पर्वदिवस में भी उन्होंने चावल का आहार लेकर मर्यादा के अनुसार सभी मुनियों को आहार के लिए निमन्त्रित किया। मासक्षमण तपस्वी मुनिवृन्द तपस्या के अहंकार से ग्रस्त था । एक मुनि ने क्रुद्ध होकर आहार पर थूकते हुए कहा- " धिक् ! संवत्सरी को भी खाने बैठ गए।” इस तिरस्कार से भी मुनि कुरगडु विचलित नहीं हुए, अपितु मुनि के थूक को घी मानकर चावल में मिला लिया। वे विचार करने लगे 'अहो! तपस्वी मुनि का प्रसाद प्राप्त हुआ है। मैं तो अधम, पामर, तुच्छ प्राणी हूँ, आहारलुब्ध जीव हूँ, अतः एक दिन के लिए भी आहार-त्याग नहीं कर पाता।' समता के बल से मुनि उसी समय केवलज्ञानी बनें।
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(vii) लाभमद -
पुण्ययोग जब प्रबल होता है; तब पग-पग पर सफलता की विजयमाला मिलती है। अपने पुरुषार्थ से कमाए हुए लाभ पर व्यक्ति को
'कथा-संग्रह
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