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________________ 324 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व उदाहरण मिलते हैं, जिन्होंने अपने बल के मद में निर्दोष-निरपराधों पर अत्याचार किया। 676 सम्राट अशोक॰7" ने कलिंग युद्ध में बस्तियों को श्मशान बना दिया था। रणक्षेत्र में लाशों के ढेर लगे थे, खून की नदियाँ बह चली थीं। अपनी विजय पर प्रसन्न बने सम्राट अशोक को जब भिक्षु उपगुप्त ने रणक्षेत्र का दृश्य दिखाया, तो उनका हृदय पश्चाताप से भर उठा। उनकी आँखें नम हो गई, सिर ग्लानि से झुक गया। उन्होंने अपने बल का उपयोग जनहानि नहीं, जनहित के लिए करने का संकल्प किया। (v) श्रुतमद ज्ञान विराट् है, इसका पार नहीं पाया जा सकता। ज्ञान का अभिमान ज्ञान को विषाक्त बना देता है। शास्त्रकारों ने कहा भी है. - "सुयलाभे न मज्जिज्जा” 1 अर्थात्, श्रुत पाकर भी व्यक्ति को मद नहीं करना चाहिए। श्रुतज्ञान से मानव - जीवन में नम्रता, सहिष्णुता, क्षमा, विवेक आदि गुण आना चाहिए। इसके विपरीत, यदि उद्दण्डता, अविवेक एवं मद आदि प्रवृत्ति आती है, तो वह ज्ञान व्यर्थ है । ज्ञानी को अपने ज्ञान पर घमण्ड न कर उस ज्ञान को दूसरों में बाँटना चाहिए । आत्मा अनन्त ज्ञानादि गुणों से सम्पन्न है । प्रत्येक आत्मा में त्रिलोक एवं त्रिकालज्ञाता बनने की शक्ति छिपी है। इस आत्मशक्ति को विस्मृत कर जब अल्पज्ञान में अधिकता का बोध हो जाता है, तो मान को नष्ट करने में समर्थ ज्ञान ही मान का कारण बन जाता है, जैसे- मास्तुष मुनि ने ज्ञान का मद किया था, तो उन्हें एक भी शब्द याद नहीं रहता था । उपाध्याय यशोविजयजी व्याकरण, साहित्य, न्यायशास्त्र आदि सब शास्त्रों का अध्ययन कर षट्दर्शन के पारगामी बने । काशी में विद्याभ्यास कर उन्होंने पाँच सौ पण्डितों को वाद में पराजित किया। शब्द-विद्या की विशालता, बुद्धि की प्रबलता, तर्कशक्ति की प्रखरता, वक्तृत्वकला में वाचालता आदि अनेक बाह्य - शक्तियों का बल प्राप्त होने पर वे गर्विष्ठ बन गए । प्रवचन - सभा में वे अपनी शक्ति के प्रदर्शनरूप 676 कथा-संग्रह 677 कथा-संग्रह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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