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(i) जातिमद
मूल में आत्मा की कोई जाति नहीं होती है । समाज में वर्ण-व्यवस्था (जातियाँ) कर्म के आधार पर निर्मित हुई हैं। ये जातियाँ चार हैं- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । समाज में जाति के आधार पर लोग अपने को बड़ा समझते हैं । ब्राह्मण - जाति में उत्पन्न होने वाला श्रेष्ठ है, वहीं शूद्र जाति में उत्पन्न होना अश्रेष्ठ है - ऐसा भाव ही जातिमद है। वर्ण और जाति की व्यवस्था सिर्फ व्यवसाय के आधार पर हुई थी, न कि जाति के आधार पर । भूगवान् ने भी कहा है कर्म से ही व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होता है, अतः जाति का अभिमान छोड़ने योग्य है। हरिकेशचाण्डाल ने पूर्वजन्म में ब्राह्मण - जाति में जन्म लेकर जातिमद के कारण ऐसा कर्मसंचय किया कि वर्त्तमान भव में चाण्डाल (शूद्र) जाति में उत्पन्न हुआ। 73
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(ii) कुलमद
कुलमद, अर्थात् अच्छे खानदान में उत्पन्न होने का मद । अच्छे कुल में जन्म ले लेने से कोई व्यक्ति बड़ा नहीं हो जाता, बल्कि अपने कार्यों से बड़ा बनता है, जैसे हरिकेशी मुनि अपने सुकार्यों से ही महान् बने। जिस कुल में महान् पुरुषों का जन्म होता है, वह कुल श्रेष्ठ कहलाता है । अज्ञान के कारण ही व्यक्ति कुल का मद करता है ।
भगवान् महावीर का तीसरा भव मरीचि का था । उस समय मरीचि अहंकार से नाचने लगा, जब भरत चक्रवर्ती ने उसे वन्दन कर कहा 'तुम भविष्य में वासुदेव, चक्रवर्त्ती एवं तीर्थंकर - तीनों पद के भोक्ता बनोगे ।' मरीचि विचार करने लगा- 'मेरे दादा तीर्थंकर, मेरे पिता चक्रवर्ती और मैं श्रेष्ठातिश्रेष्ठ तीन पदवी प्राप्त करूंगा। अहो ! हमारा कुल कितना
669 अट्ठ मयट्टाणा पण्णत्ता, तं जहा जातिमए, कुलमए, बलमए, रूवमए, तवमए, सुतमए, लाभमए, इस्सरियमए । - स्थानांगसूत्र - 8/21 समवायांगसूत्र - 8/1
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671 योगशास्त्र - 4/13
जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
672 कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ । इसो कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा ।।
उत्तराध्ययनसूत्र
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उत्तराध्ययनसूत्र 25 / 33
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