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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व अर्थात्, मानसंज्ञा का जब उदय होता है, तब व्यक्ति यथार्थता को भूल जाता है तथा मदोन्मत्त होकर अनेक पापकार्य भी कर डालता है। यह स्वयं के लिए अनर्थकारी व दूसरों के लिए भी अकल्याणकारी होता है । जब मान होता है, तब विनम्रता नष्ट हो जाती है। जीवन में सफलता के लिए विनय अति आवश्यक है । धन, सम्पत्ति, सुख, प्रसन्नता, ज्ञानसाधना आदि सभी क्षेत्रों में विनय के बिना प्रगति नहीं की जा सकती। जो झुकता है, वही आगे बढ़ता है। झुकना तो जीवन की पहचान है, जैसा कि उर्दू के एक विद्वान् ने कहा है - 320 झुकता वही है, जिसमें कुछ ज्ञान है । अकड़पन तो खास, मुर्दे की पहचान है । 663 अभिमान करना अज्ञानी का लक्षण है। 002 जो अपनी प्रज्ञा के अहंकार में दूसरों की अवज्ञा करता है, वह मूर्खबुद्धि (बालप्रज्ञ) है। मान का प्रभाव इतना प्रबल है कि वह धर्म को भी अधर्म बना देता है । जैसे जहर पेय को अपेय बना देता है, वैसे ही अहंकार भी पुण्य को पाप, धर्म को अधर्म बना देता है । जप, तप, दान, दया आदि में जब यह मानरूपी पाप छा जाता है, तो इन क्रियाओं को निर्जरा-रूप फल प्राप्त नहीं हो सकता है। उमास्वातिजी महाराज ने ठीक ही कहा है – “जाति, कुल आदि किसी भी प्रकार के मद से उन्मत्त जीव पिशाच की तरह दुःखी होते हैं और परलोक में जाति आदि की हीनता निश्चित प्राप्त करते हैं। 004 अहंकार पतन की निशानी है, कभी भी अभिमान लाभकर नहीं होता । दीपक जब बुझने की तैयारी में होता है, तब क्षणभर के लिए लौ ऊपर उठती है और बहुत तेज प्रकाश बिखेरती है, परंतु यह तो उसके बुझने की निशानी है, इसी प्रकार, तीव्र अभिमान भी नीचे गिरने (पतन) की निशानी है। जब व्यक्ति अभिमान से भर जाता है, तो उसे हित-अहित का भान नहीं रहता । स्वयं का महत्त्व सर्वोपरि हो जाता है। व्यक्ति जो सोचता है, उसी को सही मानता है। मान के कारण हृदय से सब सद्गुण उसी प्रकार विदा होने लगते हैं, जिस प्रकार तालाब का पानी सूखने पर उसके 662 बालजणो पगभई । - सूत्रकृतांगसूत्र 1/11/2 663 अन्नं जण खिंसइ बालपन्ने । - वही, 1/13/14 664 जात्यादिमदोन्मतः पिशाचवद भवति दुखितश्चेह । जात्यादि हीनता परभवे च निः संशय लभते । । - प्रशमरति, गाथा 198 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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