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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 319 अभिमानी मनुष्य अपनी अहंवृत्ति का पोषण करता रहता है। उसे अपने से बढ़कर या अपनी बराबरी का गुणी व्यक्ति कोई दिखता ही नहीं। 655 धर्मामृत (अनगार)656 में उपमा के माध्यम से मान के विषय में कहा गया है- 'जैसे सूर्य के अस्त होने पर अन्धकार व्याप्त हो जाता है और निशाचर (राक्षस) भ्रमण करने लगते हैं, उसी प्रकार विवेकरूपी सूर्य जब अहंकाररूपी अस्ताचल की ओट में लुप्त हो जाता है, तो मोहान्धकार व्याप्त हो जाता है। रागद्वेषरूपी निशाचर घूमने लगते हैं, चौर्य, व्यभिचार आदि पापकर्म पनपने लगते हैं। प्राणी दृष्टिहीन होकर स्वच्छन्दतापूर्वक उन्मार्ग में प्रवर्तित होने लगते हैं।" ___ मोक्षमार्ग-प्रकाशक 67 में मान का स्वरूप बतलाया गया है कि अभिमानी व्यक्ति स्वयं को उच्च एवं अन्य को निम्न प्रदर्शित करने की इच्छा रखता है। परिणामस्वरूप, वह अन्य की निन्दा करता है, स्वप्रशंसा हेतु विवाहादि कार्यों में क्षमता से अधिक व्यय करता है। यदि उसकी इच्छा पूर्ण न हो, तो वह अत्यन्त सन्तप्त होता है। सन्ताप की तीव्रता में कभी-कभी विष-भक्षण, अग्नि-स्नान आदि से आत्मघात भी कर लेता है। ___मान-मोहनीयकर्म के उदय से अपने को विशेष समझना और अहंकार, दर्प, गर्व आदि के रूप में जीव की परिणति को मान-संज्ञा कहते हैं।58 अहंकार की मनोवृत्ति मान-संज्ञा कहलाती है। प्रवचनसारोद्धार में कहा गया है - मानकषाय के उदयजन्य गर्व की कारणभूत अवस्था या भाव मानसंज्ञा है। जीवात्मा में जीव अथवा अजीव (धन, सम्पत्ति) आदि के कारण अहंकारपूर्ण मनःस्थिति को मान-संज्ञा कहते हैं। 007 जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन- भाग-1, डॉ. सागरमल जैन, पृ. 501 656 धर्मामृत अनगार, अ.6, श्लोक 10 मोक्षमार्ग प्रकाशक, पं. टोडरमल, पृ. 53 प्रज्ञापनासूत्र - 8/725 659 उत्तराध्ययनसूत्र : दार्शनिक अनुशीलन एवं वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उसका महत्व, सा.डॉ. विनीतप्रज्ञा, पृ.491 660 प्रवचनसारोद्धार, सा. हेमप्रभा, द्वार 146, पृ. 80 661 दण्डक प्रकरण, मुनि मनितप्रभसागर, पृ. 310 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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