________________
जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
315
चार मूलभूत संज्ञाओं, अर्थात् आहार, भय, मैथुन और परिग्रह में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित होती है। क्रोध की उत्पत्ति के साथ ही व्यक्ति में आक्रामकता की मूलवृत्ति अभिव्यक्त होती है। प्राथमिक स्थिति में आक्रामकता Aggression} संरक्षणात्मक होती है, लेकिन कालान्तर में वह एक तरह से व्यक्ति के स्वभाव का अंग बन जाती है। मनोवैज्ञानिक-दृष्टि से आक्रामकता क्रोध की अभिव्यक्ति का ही एक रूप
क्रोध में व्यक्ति स्वतः तनावग्रस्त बनता है और उसमें दैहिक और मानसिक-परिवर्तन घटित होते हैं। इसमें पहले व्यक्ति सुरक्षात्मक उपाय को खोजता है, किन्तु शीघ्र ही वह आक्रामक-वृत्ति अपना लेता है। जब किसी प्राणी को यह ज्ञात होता है कि कोई दूसरा व्यक्ति या प्राणी उसके अस्तित्व के लिए खतरा उपस्थित कर रहा है, तो वह पहले अपनी सुरक्षा का प्रयत्न करता है और फिर उस सुरक्षा के लिए दूसरों पर आक्रामक हो जाता है, अतः क्रोध के संवेग · और आक्रामकता की मूलवृत्ति में कहीं-न-कहीं एक सहसम्बन्ध रहा हुआ है।
क्रोध मानसिक और दैहिक-असंतुलन को जन्म देता है और जिन्हें वह अपने हित-साधन में बाधक समझता है, उनके प्रति आक्रामक बन जाता है। क्रोध के दो पक्ष होते हैं- दैहिक और मानसिक । मानसिक-स्तर पर व्यक्ति तनावग्रस्त होता है और अपना मानसिक संतुलन और विवेक-क्षमता खो बैठता है तथा दैहिक-स्तर पर तात्कालिक-प्रक्रियाएं करने लगता है। मानसिक-स्तर पर उसकी विवेकशीलता . और विचार-क्षमता नष्ट हो जाती है।
.. बच्चों पर किए गए अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि जब उन्हें लक्ष्य वस्तु [Goal object} तक पहुंचने से रोक दिया जाता है, तो उनमें एक तरह की कुण्ठा {Erustration} उत्पन्न होती है और उस कुण्ठा से फिर उनमें आक्रामक व्यवहार {Aggressive behaviour} का जन्म होता है
और वे लक्ष्य वस्तु की ओर आक्रामकता दिखलाने लगते हैं। गीता में भी कहा गया है- “वस्तु के प्रति आकर्षण से कामनाएं उत्पन्न होती हैं और
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org