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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 313 हर प्राणी के प्रति सहानुभूति बन जाएगी और स्नेह-प्रेम का वातावरण बन जाएगा। 16. एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता नहीं है। 42 अपने सुख-दुःख का कारण व्यक्ति स्वयं है, अन्य नहीं। अपने भले-बुरे किए हुए का अन्य पर आरोपण करने से क्षमा प्रकट नहीं होगी। दूसरों को अपनी इच्छा के अनुकूल परिणमन कराने की भावना मिथ्यात्व है एवं क्रोधोत्पत्ति का कारण है, अतः तत्त्वस्वरूप का चिन्तन करना चाहिए और यह मानना चाहिए कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता नहीं है। 17. आस्रव, संवर एवं निर्जरा-भावना की अनुप्रेक्षा करना643- नदी या समुद्र की अथाह जल-राशि पर तैरती नौका या जहाज में छिद्र होने पर पानी उसमें प्रविष्ट होने लगता है; वैसे ही क्रोधादि कषायरूपी छिद्र से आत्मा में कर्म-प्रवेश होता है। नौका में हुए छिद्र को बंद करने पर जल-आगमन अवरुद्ध हो जाता है; उसी प्रकार क्षमा-भावपूरित आत्मा में कर्म-निरोध होता है। जिस प्रकार नाव में भरे जल को किसी पात्र से बाहर फेंक देने से नाव हल्की हो जाती है; उसी प्रकार क्षमारूपी यतिधर्म का पालन करने से आत्मा शुद्ध बनती है। 18. उत्तराध्ययनसूत्र44 में कहा है – कोह विजएणं भंते! जीवे किं जाणयई? उत्तर- कोह विजएणं खंति जणयइ, अर्थात्, क्रोध पर विजय करने से क्या प्राप्त होता है ? उत्तर- क्रोध पर विजय करने से क्षमाभाव प्रकट होता है। क्षमा मोक्ष का द्वार है। क्षमा वीरों का भूषण है। सहज क्षमा ही क्षमा है, कषाय प्रेरित क्षमा, क्षमा नहीं है। क्षमा करने से जो आनन्द प्राप्त होता है, वह अकथनीय है। क्षमा से शत्रु भी हमेशा मित्र बन जाते हैं। क्षमा से ही शान्ति प्राप्त होती है तथा इहलोक एवं परलोक -दोनों सुखकारी बनते हैं। योगशास्त्र में कहा है – “उत्तम आत्मा को क्रोधरूपी अग्नि तत्काल शान्त करने के लिए एकमात्र क्षमा का ही आश्रय लेना चाहिए। 642 छह ढाला। 643 644 बारह भावना। उत्तराध्ययनसूत्र, अ. 29, गाथा 68 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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