________________
312
जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
1
12. क्रोध आ रहा है, तो थोड़ा विलम्ब करो । प्रतिक्रिया में शीघ्रता मत करो, क्योंकि क्रोध अशुभ है, क्रोध पाप है । भगवान् महावीर कहते हैं शुभ करना है, तो तत्क्षण करो, लेकिन अगर अशुभ करना है, तो विलम्ब करो, उसे कल पर छोड़ दो। 'शुभस्य शीघ्रं ' लोकोक्ति के अनुसार भी शुभ कार्य में देर मत करो। यदि अशुभ करना है, पाप करना है, क्रोध करना है, तो कल पर छोड़ दो। कुछ घन्टों बाद करूँगा- जब यह भाव मन में आता है, तो विलम्बता के कारण वह कभी क्रोध कर ही नहीं पाता है। इस प्रकार, क्रोध के समय तत्काल प्रतिक्रिया न करके कल पर टाल देते हैं, तो क्रोध पर विजय प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि क्रोध क्षणिक आवेश मात्र होता है। आवेश उतर जाता है, तो चाहकर भी कुछ अशुभ नहीं कर सकते।
13. हम दोषी हैं, तो क्रोध का कारण ही नहीं है। यदि वर्त्तमान में हमारा दोष हमें दिखाई नहीं देता, तो कहीं अतीत में हमारी भूल रही होगी – ऐसा मानने पर दूसरे के अपमान, तिरस्कार आदि का प्रसंग नहीं बनेगा । दुःख देने वाला बाह्य - निमित्त है, अन्तरंग में हमारा कर्मोदय है। कर्म विपाक को जानने या देखने वाला विश्व में सर्वत्र निष्पक्ष रूप से एक सुव्यवस्थित न्याय - तन्त्र को देखता है । वह यह जानता है कि आज जो मेरा अपराधी है, पहले उसका मैं अपराधी रहा होगा। वर्त्तमान में मेरा असाता - वेदनीय अथवा अशुभ नामकर्म का उदय है तथा निमित्त बनने वाले का मोहनीय कर्म का उदय है - यह चिन्तन जब चलता है, तो क्रोध कभी नहीं आता ।
14. महापुरुषों ने प्राणान्तक कष्टों के आने पर भी अपना सन्तुलन नहीं खोया, उनके जीवन से हम भी शिक्षा ग्रहण करें । भगवान् महावीर ने संगम, शूलपाणि, यक्ष आदि पर मैत्रीभाव रखा। ईसा मसीह ने सूली पर लटकते समय विरोधियों को भी क्षमा कर देने हेतु प्रभु से प्रार्थना की। दयानन्द सरस्वती ने भोजन में काँच पीसकर मिलाने वाले रसोइए के प्रति दुर्भाव नहीं किया ।
15. क्रोध सहनशीलता के अभाव में आता है। जब व्यक्ति के अनुकूल न होकर प्रतिकूल विचार एवं कार्य होता है, तब क्रोध आता है। ऐसे अवसर पर 'मित्ती में सव्वभूएस सिद्धान्त को अपनाएं, तो
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org