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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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जाता है। नीरव स्थान में ध्यानमुद्रा. में आँखें बन्द करके, कान के छेदों को दोनों हाथों की अंगुलियों से बन्द करके अन्तर्ध्वनि को सुनने का प्रयास करें। अभ्यास में प्रगति होने पर कभी धुंघरु, घंट, शंख, बांसुरी, मेघगर्जना आदि की ध्वनियों जैसी ध्वनि भी सुनाई दे सकती है।
8. त्राटक-ध्यान के माध्यम से भी क्रोध का शमन किया जा सकता
है।
9. विचारों का श्वासोच्छवास से सीधा और गहरा सम्बन्ध है।
श्वासोच्छवास की गति जितनी मन्द और लयबद्ध होगी, मन उतना शान्त होगा। क्रोधावस्था में श्वास की गति तीव्र और अनियमित हो जाती है, अतः चित्त-स्थिति में परिवर्तन के लिए श्वास–गति को मन्द करने का प्रयास करना चाहिए।
10. विचार–प्रवास का निरीक्षण चित्त-शान्ति का एक सशक्त साधन
है। क्रोध कैसे प्रारम्भ हुआ ? कहाँ से प्रारम्भ हुआ ? उसका मूल उद्गम स्रोत कौन-सा कषाय है ? ऐसे प्रश्नों के उत्तर ढूंढते जाने से मन पर परिस्थिति का प्रभाव समाप्त हो जाता है और विचारों में परिवर्तन स्वाध्याय, चिन्तन, अनुप्रेक्षा आदि के माध्यम से होता है। इस प्रकार, हम ध्यान-प्रक्रिया के माध्यम से क्रोध एवं अन्य कषायों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।
11. व्यक्ति के अहंकार को जब चोट लगती है, तो उसे गुस्सा आता
है। जब तक अहंकार शांत रहता है, हम सामने वाले से खुश ही रहते हैं, किन्तु अहंकार को चोट लगते ही हम गुस्सा कर बैठते हैं। अहंकार क्रोध का पिता है। क्रोध का एक कारण आलोचना है। यदि किसी ने विपरीत टिप्पणी कर दी, तो हम तत्काल गुस्सा कर बैठते हैं। इस परिस्थिति से विजय समताभाव से प्राप्त कर सकते हैं। जब समताभाव प्रबल होगा, तो अहंकार और आलोचना का प्रभाव मन-मस्तिष्क पर नहीं पड़ेगा और क्रोध समाप्त हो जाएगा।
647 कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन, साध्वी डॉ हेमप्रज्ञाश्री, पृ. 137
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