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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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है। क्रोध के क्षण में मनुष्य अपने होश-हवास, विवेक और बुद्धि खोकर कुछ समय के लिए उपरोक्त विषम स्थिति में पहुंच जाता है। व्यक्ति क्रोध के वशीभूत होकर अपनों और परायों- दोनों को नुकसान पहुंचाता है। इसे क्षणिक संवेग इसलिए कहा गया, क्योंकि कई बार एक क्षण के लिए व्यक्ति आवेश और आक्रोश में आकर कोई भी निर्णय या कार्य कर बैठता है, जिसके लिए उसे जीवनभर पछताना पड़ता है।
जिस प्रकार अग्नि थोड़े ही समय में रुई के ढेर को भस्म कर डालती है, उसी प्रकार क्रोधाग्नि भी आत्मा के समस्त गणों को भस्म कर देती है। क्रोध उत्पन्न होने पर मनुष्य आँखें होते हुए भी अंधा बन जाता है। शास्त्रों में कहा गया है कि वैर से वैर बढ़ता है एवं क्रोध करने से क्रोध अधिक बढ़ता जाता है, पर इस दानवरूपी क्रोध पर हम विजय पा सकते हैं।
1. दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि क्रोध को उपशम से नष्ट
करो, 40 अर्थात् समभाव से क्रोध को जीतो। हम उपशमभाव रखें, मौन रखें। मौन से बढ़कर क्रोध जीतने का कोई दूसरा उपाय नहीं है। जब हम प्रतिवाद नहीं करेंगे, तो सामने वाला कितनी देर तक क्रोध करेगा ? अर्थात् कुछ समय बाद उसका क्रोध स्वतः ही शान्त हो जाएगा तथा हमारे मौन धारण करने से विवाद, कलह आदि नहीं होंगे। कहा भी है
प्रबल क्रोध के रोग को, हर सकता है कौन।
उसका एक इलाज है, मन में रखे मौन।। 2. यदि वाणी पर नियंत्रण न हो, तो क्षेत्र-परिवर्तन उचित है। जिस
स्थान पर आप खड़े हैं, उस स्थान से ग्यारह कदम पीछे हट जाएँ। पीछे जगह न हो, तो दाएँ या बाएँ चले जाएँ, सामने कदापि न जाएँ। जहाँ क्रोध आया है, वहाँ से उठकर अन्यत्र चले जाएँ, उस स्थान को, उस क्षेत्र को तत्क्षण छोड़ दें।
3. क्रोध में आकर व्यक्ति को इतना ख्याल आ जाए कि क्रोध आ रहा
है, तो वह संभल सकता है। अगर इतना होश सध जाए कि क्रोध
640 उवसमेण हणे कोहं | - दशवैकालिकसूत्र- 8/39
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