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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
7. क्रोध प्रीति का नाश करता है638 -
क्रोधी व्यक्ति किसी से प्रेम नहीं कर सकता। कोई उसका मित्र नहीं बनना चाहता। प्रीति का रस मानव-जीवन को सहजतापूर्वक जीने के लिए अति आवश्यक है। जिसके जीवन में प्रीति का रस नहीं, उसका जीवन व्यर्थ है। जैसे वृक्ष पानी के सिंचन से हरा-भरा रहता है, वैसे ही मानव भी प्रीति के रस से प्रफुल्लित रहता है।
8. तामसिक-आहार से क्रोध के दुष्परिणाम -
कई बार तामसिक-आहार अथवा शारीरिक दुर्बलता या बाह्य-परिस्थिति के अभाव में भी क्रोधोत्पत्ति होती है। अन्तरंग में कषाय उदय होने पर व्यक्ति अकारण ही बरस पड़ता है, औचित्य-अनौचित्य का विवेक समाप्त हो जाता है। क्रोध सर्व संयोगों में, सर्व-स्थलों पर, सब प्रकार से अनिष्टकारी है; किन्तु कभी-कभी अन्याय के विरोध में, धर्मरक्षा के लिए, कर्त्तव्यपालन हेतु किया गया क्रोध क्षम्य मान लिया जाता है, जैसे -स्त्री के सतीत्व की रक्षा के लिए, प्राचीन तीर्थ और धार्मिक-ग्रंथों की रक्षा के लिए तथा माता का पुत्र के प्रति, गुरु का शिष्य के प्रति जो क्रोध है, वह उपादेय है। अनेक बार ऐसी परिस्थितियाँ निर्मित होती हैं कि यदि उनका प्रतिकार न किया जाए, तो दूरगामी परिणाम भयंकर होते हैं, किन्तु जैनदर्शन इसे उचित नहीं मानता। व्यवहार में दूसरों को दण्ड दिया जा सकता है, किन्तु हृदय में करुणाभाव आवश्यक है।
यह धारणा भी अनुपयुक्त है कि अधीनस्थ कार्यकर्ता से समुचित कार्य कराने हेतु क्रोध आवश्यक है। किसी को उचित प्रेरणा देने हेतु क्रोध नहीं, अपितु स्वयं का आचरण अपेक्षित होता है। उग्रता से उग्रता एवं मैत्री से आत्मीयता प्रकट होती है। क्रुद्ध भाषा सामने उपस्थित व्यक्ति को भी क्रोधित कर देती है, अतः क्रोध प्रत्येक दृष्टि से हानिकारक है।
क्रोध पर विजय के उपाय -
भारतीय-मनोविज्ञान के अनुसार, क्रोध हमारे भीतर उठने वाला एक ऐसा संवेग है, जो क्षण में उत्पन्न होता है और क्षण में शान्त हो जाता
638 ‘कोहो पीइं पणासेई' – दशवैकालिक सूत्र-8/38 639 स्थानांगसूत्र- 4/1/80
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