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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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सम्यक्त्व-गुण से भ्रष्ट करता है। हजारों जन्मों की साधना के बाद जो गुण-संपदा मिलती है; वह क्रोध के एक तूफान में पूरी नष्ट हो जाती है।
• क्रोधवश लब्धाकारी कुरुट–उत्कुरुट मुनि सातवीं नरक में गए। • साधु भी चंडकौशिक सर्प बने।633 • क्रोधवश शय्यापालक के कानों में शीशा डलवाने से भगवान्
महावीर स्वामी के कानों में भी कीलें ठोकी गईं।
गुणसेन–अग्निशर्मा की नौ भव तक वैर की परंपरा चली।635 • कमठ भी द्वेष के कारण दस भवों तक भगवान् पार्श्व का वैरी बना
और अन्त में दुर्गति को प्राप्त हुआ। 5. क्रोध के कारण आत्मदर्शन संभव नहीं -
दर्पण पर फूंक मारने पर वह धुंधला हो जाता है, फिर उसमें आप अपना प्रतिबिम्ब नहीं देख सकते। यही स्थिति क्रोध के विषय में है। मन के दर्पण में क्रोध की फूंक मारने से आत्म-दर्शन संभव नहीं है। खौलते पानी में आप अपना प्रतिबिम्ब कैसे देख सकते हैं ? क्रोधी व्यक्ति आत्मदर्शन कैसे कर सकता है ? आत्मदर्शन, आत्मानुभूति, आत्म-साक्षात्कार समता-भाव में ही संभव है।
6. क्रोध से स्मरणशक्ति का नाश -
होठों की मुस्कान जहाँ हमारे चेहरे के सौन्दर्य को बढाती है, वहीं क्रोध की रेखा सौन्दर्य को मिट्टी में मिला देती है। क्रोध हमारे दिमाग को कमजोर करने के साथ-साथ शरीर को भी कमजोर करता है। गुस्सा आदमी के शरीर का रक्तचाप बढ़ा देता है। गीता37 में भी कहा है -क्रोध से स्मृतिभ्रम होता है और उससे बुद्धि का नाश होता है। क्षुब्ध अवस्था में ज्ञान-तन्तु शिथिल हो जाते हैं। चैतन्य का ज्ञानक्षेत्र संकुचित हो जाता है।
633 आचारांग- 1/3/2 634 कल्पसूत्र से 635 समरादिल्य चारित्र 636 कल्पसूत्र, हिन्दी अनुवाद श्री जिन आनन्दसागर सूरिश्वर जी, पृ. 234 637 गीता, 2/63
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