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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 627 जीवन - रस को जला देती है । 1 626 क्रोध में मूढ़ (पागल) होकर वह मनुष्य अपने बड़ों (गुरु) को भी अपशब्द (गाली) कहना प्रारम्भ कर देता क्रोध वह नशा है, जो शराब पिए बिना भी मनुष्य को उन्मत्त बनाए रखता है और जीवन की सुन्दरता और मधुरता- दोनों को नष्ट कर देता है । क्रोध के दुष्परिणाम निम्न हैं 1. क्रोध विवेकहीन बनाता है - क्रोधावस्था में विवेक पलायन कर जाता है, भले-बुरे की पहचान और बड़े-छोटे का भेद विस्मृत हो जाता है। क्रोध के मूल में प्रतिकार का भाव होता है। क्रोध में विवेक खोने के कारण व्यक्ति की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। क्रोध के वशीभूत व्यक्ति ऐसा कृत्य भी कर डालता है, जिसका परिणाम बड़ा गम्भीर होता है। एक लड़का, जिसे गुस्सा बहुत आता था, एक दिन उसके घर में किसी ने उसे टोक दिया। लड़के को गुस्सा आ गया। संयोग से, उस दिन उसे परीक्षा देने जाना था, किंतु गुस्से में भरकर उसने निर्णय लिया कि मैं परीक्षा देने नहीं जाऊंगा। सभी ने उसे समझाया, पर उसकी बुद्धि पर क्रोध के बादल मंडरा रहे थे, आवेश में आकर लिए गए निर्णय ने उसका पूरा वर्ष बेकार कर दिया । 2. क्रोध हिंसा को भड़काता है 305 I क्रोध के भाव में व्यक्ति हिंसक हो जाता है । क्रोध में व्यक्ति दो रूपों में हिंसक हो जाता है। कभी वह औरों को नुकसान पहुंचाता है, तो कभी स्वयं को। औरों को नुकसान पहुंचाने के लिए वह गाली-गलौच करता है, हाथापाई करता है, अथवा किसी पर शस्त्र से प्रहार भी कर देता है । क्रोधावस्था में मनुष्य राक्षस की तरह भयंकर बन जाता है, 028 लेकिन कई बार व्यक्ति इसका उल्टा भी कर लेता है । क्रोध में आकर वह अपना ही सिर दीवार से टकरा देता है, भोजन कर रहा हो, तो भोजन की थाली उठाकर फेंक देता है। अहमदाबाद के एक मोहल्ले में घटित हुई सत्य घटना- नल के पानी के लिए दो स्त्रियों के बीच झगड़ा हुआ। दोनों 626 यदग्निरापो अदहत् । अथर्ववेद 1/25/1 627 क्रोद्धो हि संमूढः सन् गुरुं आक्रोशति । गीता, शांकरभाष्य- 2/63 628 कोवेण रक्खसो वा णराण भीमों णरो हवदि । - भगवती आराधना 1361 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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