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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
अठारह पापों में से छठवां स्थान होने से यह भी आत्मा को भारी बनाता है एवं इसका त्याग करने से जीव हल्का होता है।
दशवैकालिकसूत्र621 में कहा है - जब क्रोध उत्पन्न होता है, तो प्रीति नष्ट हो जाती है। जब प्रीति नष्ट होती है, तो क्रोध के दुष्परिणाम उत्पन्न होने लगते हैं। क्रोध के लिए कहा है – मुनि कुछ कम एक करोड़ पूर्व काल में जितना चारित्र उपार्जित करता है, उस समस्त चारित्र को वह क्रोधयुक्त बनकर एक मुहूर्त मात्र में नष्ट कर देता है। क्रोधी जमी हुई और बनी हुई बात को क्षणभर में बिगाड़ देता है। क्रोध के फलस्वरूप जीव कुरूप, सत्वहीन, अपयश का भागी और अनन्त जन्म-मरण करने वाला बन जाता है, इसलिए क्रोध हलाहल विष के समान है -ऐसा जानकर सन्त कदापि क्रोध से संतप्त नहीं होते हैं। वे सदैव शान्त एवं शीतल रहते हैं और दूसरों को भी शांत-शीतल बनाते हैं।
उपासकाध्ययन में कहा है - "क्रोध से जिसका मन चलायमान हो गया है, वह सभी बुरे कार्यों को करता है। उसका कोई भी पाप-कार्य शेष नहीं रह जाता। क्रोधी व्यक्ति धर्म की मर्यादा का नाश कर देता है और सदा पशु के समान अपना अविवेकपूर्वक आचरण करता है। 622
स्थानांगसूत्र में कहा है – पर्वत की दरार के समान जीवन में कभी नहीं मिटने वाला उग्र क्रोध आत्मा को नरक-गति की ओर ले जाता है।623 जो मनुष्य क्रोधी, अविवेकी, अभिमानी, दुर्वादी, कपटी और धूर्त है, वह संसार के प्रवाह में वैसे ही बह जाता है, जैसे जल के प्रवाह में काष्ठ । 24 क्रोध से मनुष्य का हृदय रौद्र बन जाता है। वह मनुष्य होने पर भी नारक जैसा, शैतान जैसा आचरण करने लगता है,625 क्योंकि क्रोधरूपी अग्नि
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सव्वं पाणाइवायं ...... सव्वं कोहं माणं माय लोहे च राग दोसे य। - प्रवचनसारोद्धार द्वार
237/गाथा 1351-1353 621 कोहो पीइं पणासेइ ........... | – दशवैकालिकसूत्र-8/27 622 कोऽनर्थनिःशेषश्च कोपयुक्ताधमस्तां न करोति।
हन्ति धर्म मर्यादा पशुखि समाचरन्ति नित्यम् ।। - उपासकाध्ययन- 1/275 625 पव्वरयराइसमाणं कोहं अणुपविढे जीवे।
कालं करेइ णेरइएसु उववज्जति।। - स्थानांगसूत्र-4/2 जे य चंडे मिए थद्धे, दुव्वाई नियडी सढे। वुज्झइ से अविणीयप्पा, कळं सोयगयं जहा।। - दशवैकालिकसूत्र-9/2/3 रोसेण रूद्दहिदओ, णारगसीलो णरो होदि। - भगवतीआराधना 1366
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