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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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झंझा - तीव्र संक्लेश-परिणाम को झंझा कहा गया है। आचारांगसूत्र में 'झंझा' का प्रयोग 'व्याकुलता' के अर्थ में हुआ है।17
साहित्यकार रामचन्द्र शुक्ल ने क्रोध के अन्य रूप भी बताए हैं।18
(अ) चिड़चिड़ाहट-क्रोध का एक सामान्य रूप है- चिड़चिड़ाहट । चित्त व्यग्र होने पर, कार्य में विघ्न उपस्थित होने पर, मनोनुकूल सुविधा प्राप्त न होने पर झल्लाना, चिड़चिड़ाना क्रोध का रूप है।
(ब) अमर्ष-किसी अप्रिय स्थिति से न बच पाने पर क्षोभयुक्त, आवेगपूर्ण अनुभव अमर्ष है।
इसी प्रकार, क्रोध के अन्य अनेक रूप भी दृष्टिगोचर होते हैं। कई लोग क्रोध में भोजन छोड़ देते हैं, कई क्रोध में अधिक भोजन कर लेते हैं। कई लोग क्रोधावेश में त्वरित गति से कार्य करते हैं, तो कई चुपचाप एक कोने में बैठ जाते हैं। कई क्रोध में बोलना छोड़ देते हैं, चुप्पी धारण कर लेते हैं, कई बड़बड़ाना प्रारम्भ कर देते हैं। कई क्रोध में अपने हाथों को दीवार पर मारते हैं, तो कई वस्तुओं को उठाकर फेंक देते हैं। अतः, उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि क्रोध-भाव एक है, किन्तु उसके रूप, परिणतियाँ विभिन्न दिखाई देती हैं।
क्रोध के दुष्परिणाम
भगवतीसूत्र19 में भगवान से प्रश्न किया गया कि जीव किस प्रकार गुरुत्व या भारीपन को प्राप्त होता है ? तो प्रभु ने उत्तर दिया -पापों के सेवन से ही जीव गुरुत्व या भारीपन को प्राप्त करता है एवं नीच गति में जाने योग्य कर्मों का उपार्जन करता है। पापों का सेवन करने से ही जीव संसार को बढ़ाता है एवं बारम्बार भव-भ्रमण करता है। क्रोध का भी
617 आचारांगसूत्र, अ. 3, उ. 3. सूत्र 69 618 चिन्तामणि, भाग-2, पृ. 139
कहण्णं भंते ! जीवा गरूयत्तं हव्वमागच्छति ? गोयमा पाणाइवाएणं मुसावाएणं आदिण्णादाणेणं, मेहुणेणं परिग्गहेणं कोह-माण माया लोभ – मिच्छदसणसल्लेणं एवं खलु गोयमा जीव गरूयतं हव्वमागच्छति।। - भगवतीसूत्र, 1 शतक, 9 उद्देश्क, सूत्र-384
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