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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
1. आत्मप्रतिष्ठित (स्व-विषयक)
जो अपने ही निमित्त से उत्पन्न होता है, जैसे - हाथ से काँच की बनी हुई कोई वस्तु अपनी लापरवाही से नीचे गिरकर टूट जाने से मन क्षुब्ध हो जाता है, स्वयं को धिक्कारने लगता है, इस प्रकार का क्रोध आत्मप्रतिष्ठित होता है ।
2. पर - प्रतिष्ठित ( पर - विषयक)
जब अन्य कोई क्रोधोत्पत्ति में कारणभूत हो, जैसे- नौकर के हाथ से घड़ी गिरने पर मालिक को क्रोध आना ।
3. तदुभय-प्रतिष्ठित (उभय विषयक)
जो क्रोध स्व और पर - दोनों के निमित्त से उत्पन्न होता है, जैसेकर्मचारी के हाथ से गिलास लेते-लेते छूट गया, गिर गया और टूट गया । कर्मचारी पर क्रोध इसलिए आया 'मैने ठीक से पकड़ा नहीं था और तुमने छोड़ दिया। अपने प्रति क्रोध इसलिए आया कि इतने गर्म दूध का गिलास हाथ में क्यों लेने लगा ? मेज पर क्यों नहीं रखवा दिया?
4. अप्रतिष्ठित
वह क्रोध, जो केवल क्रोध- वेदनीय के उदय से उत्पन्न होता है, आक्रोश आदि बाह्य कारणों से उत्पन्न नहीं होता। इस क्रोध में स्वयमेव चित्त क्षुब्ध होता रहता है, उद्विग्नता - चंचलता बनी रहती है ।
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प्रज्ञापनासूत्र 599 और स्थानांगसूत्र में अन्यापेक्षा भी क्रोधोत्पत्ति के चार कारण बताए गए हैं- 600
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599 प्रज्ञापनांसूत्र, कषाय-पद- 14, गाथा, 5 उवंगसुत्ताणि 4, पृ. 187
चउहि ठाणेहिं कोधुप्पत्ती सिता तं जहा
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(क) क्षेत्र - खेत, भूमि आदि के निमित्त से क्रोध करना ।
(ख) वस्तु – घर, दुकान, फर्नीचर आदि के कारण से क्रोध करना । (ग) शरीर - कुंरूपता, रुग्णता आदि कारण से क्षुब्ध होना । (घ) उपाधि सामान्य साधन-सामग्री के निमित्त कलह करना ।
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खेत्तं, पडुच्चा, वत्युं पडुच्चा। - स्थानांगसूत्र
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