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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
आचार्य मलयगिरि ने स्पष्ट करते हए कहा है596 – क्रोध न आने पर भी अपराधी को सबक देने के लिए क्रोधपूर्ण मुद्रा बनाना आभोगनिवर्तित-क्रोध है, जैसे- बच्चे को भयभीत करने के लिए माँ क्रोध का अभिनय करती है।
2. अनाभोगनिवर्तित-क्रोध -
क्रोध के दुष्परिणाम से अनजान होकर क्रोध करना अनाभोगनिवर्तित क्रोध है। आचार्य मलयगिरि के अनुसार, आदत से मजबूर होकर लाभ-हानि का विचार किए बिना अकारण/निष्प्रयोजन क्रोध करना अनाभोगनिवर्तित क्रोध है।597
3. अनुपशान्त-क्रोध -
उदय को प्राप्त क्रोध अनुपशान्त-क्रोध है, अर्थात् क्रोध के उदय की स्थिति अनुपशान्त-क्रोध है।
4. उपशान्त-क्रोध -
सुप्त क्रोध-संस्कार उपशान्त-क्रोध है। क्रोधोत्पत्ति के कारण -
क्रोध का मूल कारण व्यक्ति स्वयं होता है, किन्तु बाह्य-निमित्तों के आधार पर क्रोध की उत्पत्ति को दृष्टिगत रखकर भी आगमों में विचार किया गया है। स्थानांगसूत्र में क्रोध को चतुःप्रतिष्ठित कहा गया है। स्थानांगसूत्र में क्रोधोत्पत्ति के चार स्थान बताए गए हैं, वे इस प्रकार हैं1. आत्मप्रतिष्ठित, 2. परप्रतिष्ठित 3. तदुभय-प्रतिष्ठित, 4. अप्रतिष्ठित ।
595 अभोगो - ज्ञानं तेन निवर्तितो यज्जानम् कोपविपाकादि रूष्यति। - स्थानांगवृत्ति, पत्र 182 596 प्रज्ञापना पद 14, मलयगिरिवृत्ति, पत्र 291 597 यदा त्वेनमेवं तथाविधमुहुर्त्तवशाद् गुणदोषविचारणाशून्यः परवशीभूय क्रोपं कुरूते ...
तदा स क्रोपोऽनाभोगनिवर्तितः । -वही चउपतिद्विते कोहे पण्णते तं जहा – 1.आतपतिहिते, 2. परपतिट्टिते. 3. तदुभयपतिद्विते. 4. अपतिहिते - स्थानांगसूत्र- 4/76
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