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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
स्थानांगसूत्र में क्रोधोत्पत्ति के दस कारण बताए गए हैं, 601 जो निम्नोक्त हैं1. मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध का अपहरण करने वाले के
प्रति क्रोध 2. अमनोज्ञ शब्दादि विषयों का संयोग कराने वाले के प्रति क्रोध। 3. इष्ट विषयों का अपहरण दूसरों के द्वारा कराने वाले के प्रति क्रोध । 4. अनिष्ट विषयों का संयोग दूसरों के द्वारा कराने वाले के प्रति
क्रोध। 5. प्रिय संयोगों के वियोग/अपहरण की संभावना जिसके द्वारा है,
उसके प्रति क्रोध। 6. अप्रिय प्राणी/पदार्थों की प्राप्ति की आशंका जिसके द्वारा है, .
उसके प्रति क्रोध। 7. अतीत, वर्तमान या अनागत में मनोनुकूल संयोगों का अपहरण
जिसके द्वारा है, उसके प्रति क्रोध । 8. भूत, वर्तमान या भविष्य में जिससे अमनोज्ञ संयोगों की प्राप्ति की
संभावना हो, उसके प्रति क्रोध । 9. भूत, वर्तमान या भविष्य में मनपसन्द विषयों का अपहरण एवं
नापसन्द विषयों की प्राप्ति में जो कारणभूत है, उसके प्रति क्रोध। 10. आचार्य, उपाध्याय के प्रति सम्यक /उचित व्यवहार होने पर भी
उनसे प्रतिकूलता प्राप्त होने पर क्रोध।
क्रोध एक कार्य है, उसके कारण हैं - मान, माया और लोभ । अभिमान को ठेस लगने पर, माया प्रकट होने पर अथवा लोभ/आकांक्षा पूर्ण न होने पर क्रोध-ज्वालाएँ भभकने लगती हैं। निमित्त रूप कोई भी पदार्थ या प्राणी हो, पर मूल कारण स्वयं आत्मा की अशुद्ध परिणति है।
क्रोध के विभिन्न रूप
जैनदर्शन में शास्त्रकारों ने पाप के अठारह स्थान बताए हैं, जो आत्मा का पतन करते हैं। उनमें छठवां स्थान क्रोध का है।
601 क) दसहिं ठाणेहिं कोधुप्पती सिया - तं जहा- मणुण्णाई। -स्थानांगसूत्र 10, सूत्र 6
ख) कषायः एक तुलनात्मक अध्ययन, सा.डॉ. हेमप्रज्ञा श्री, पृ. 22
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