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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 293 सम्यग्दर्शन का विघातक583 अनन्तानुबन्धी (कषाय) क्रोध है। पत्थर में पड़ी दरार के समान क्रोध, जो किसी के प्रति एक बार उत्पन्न होने पर जीवन पर्यन्त बना रहता है। अज्ञानावस्था में शरीर में अहंबुद्धि तथा पदार्थों में ममत्वबुद्धि होती है, शरीर, स्वजन, सम्पत्ति आदि में आसक्ति प्रगाढ़ होती है, प्रिय संयोगों की प्राप्ति में बाधक तत्त्व अप्रिय लगता है, स्वार्थ में ठेस लगने पर क्रोध पैदा होता है- यह अनन्तानुबन्धी-क्रोध है। 'भावदीपिका 584 में व्यावहारिक-स्तर पर इस क्रोध का स्वरूप बताया गया है। कहा गया है - क्रूर, हिंसक, निम्नतम, लोकाचार का उल्लंघन करने वाला, सत्यासत्य के विवेक से शून्य, देव-गुरु-धर्म पर अश्रद्धा रखने वाला व्यक्ति 'अनन्तानुबन्धी क्रोध' से युक्त होता है। अनन्तानुबन्धी क्रोध का काल श्वेताम्बर-ग्रन्थों 585 में जीवन पर्यंत एवं दिगम्बर ग्रन्थों 586 में संख्यातभव, असंख्यातभव, अनन्तभव-पर्यन्त बताया गया है। भगवान् महावीर को कष्ट देने से संगमदेव ने अनन्तानुबन्धी-क्रोध (कषाय) का बंध किया। 2. अप्रत्याख्यानी-क्रोध (तीव्रतर क्रोध) – __ अप्रत्याख्यानी-क्रोध का जब उदय होता है तो क्रोधवश वह व्रत-ग्रहण में बाधक बनता है। आंशिक रूप में त्याग-विरतिपालन संभव नहीं हो पाता है। 587 सूखते हए जलाशय की भूमि में पड़ी दरार जैसे आगामी वर्षा होते ही मिट जाती है, वैसे ही अप्रत्याख्यानी-क्रोध एक वर्ष से अधिक स्थाई नहीं रहता है, किसी के समझाने से शांत हो जाता है। सम्यग्दृष्टि को देव-गुरु-धर्म का राग होता है, अतः देवगुरुधर्म का अपमान करने वाले के प्रति आवेश आता है। वस्तुपाल महामन्त्री ने राजा के मामा द्वारा एक बाल मुनि को. थप्पड़ मारने पर उसका हाथ कटवा दिया था। सरस्वती साध्वी का गर्दभिल्ल राजा द्वारा अपहरण होने पर कालिकाचार्य 583 पढमो दसणघाई -गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा 283 584 भावदीपिका, पृ. 51 585 जावज्जीवाणुगामिणो - विशेषावश्यक भाष्य, गाथा 2992 580 अ) जो सव्वेसिं संखेज्जासंखेज्जाणंतेहि -कषायचूर्णि, अ 8, गाथा 32, सूत्र 23 ब) गोम्मट क., गाथा 46-47 युदुदयाद्देशविरतिं. ........ कर्तुं न शक्नोति। -सर्वाथसिद्धि, अ 8, सूत्र 9 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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