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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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द्वारा वीर सैनिक का वेश धारण किया गया था। गर्दभिल्ल राजा की हत्या कर सरस्वती को कैद - मुक्त कर कालिकाचार्य ने प्रायश्चित्त लिया था । अप्रत्याख्यानी-क्रोधादि कषाय का उदयरूप अधिकतम काल श्वेताम्बर - ग्रन्थों के अनुसार एक वर्ष एवं दिगम्बर- ग्रन्थों के अनुसार ' छः मास वर्णित है। इससे अधिक काल यदि वह क्रोधादि कषाय का संस्कार बना रहा, तो अनन्तानुबन्धी कहलाता है। इस काल मर्यादा को ध्यान में रखते हुए ही जैन - परम्परा में 'सांवत्सरिक प्रतिक्रमण की व्यवस्था है।
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3. प्रत्याख्यानी - क्रोध
प्रत्याख्यानी - क्रोध धूल में पड़ने वाली रेखा के समान कहा गया है। धूल या रेती में बनने वाली रेखा हवा के झोंको के साथ मिट जाती है, उसी प्रकार प्रत्याख्यानी - क्रोध भी जल्दी मिट जाता है। धीरज से समझाने के साथ विवेक लौट आता है और क्रोध का शमन हो जाता है। प्रत्याख्यानी–क्रोध चार मास से अधिक स्थायी नहीं होता । आत्म-ज्ञान के पश्चात् साधक सांसारिक कार्यों को संक्षिप्त करके श्रावक - जीवन के बारह व्रत स्वीकार करता है । साधना - मार्ग पर उसके चरण बढ़ते जाते हैं। उसके व्रतपालन में कोई बाधक बनता है, तो उसे क्रोध आने लगता है। महाशतक भगवान् महावीर के श्रावक थे । पौषधशाला में ध्यानावस्थित होने पर पत्नी रेवती द्वारा उन्हें विचलित करने का बार-बार प्रयास किया जाने लगा । अन्ततः क्रुद्ध होकर वे बोल उठे - रेवती ! तुम्हारा रूप का अभिमान टिकने वाला नहीं। सात दिनों बाद तुम देह त्यागकर नरक में उत्पन्न होने वाली हो। यह क्रोधोदय श्रावक, व्रतधारी तक सभी में होता है ।
4. संज्वलन - क्रोध
शीघ्र ही मिट जाने वाली या पानी में पड़ने वाली रेखा के समान संज्वलन - क्रोध समता एवं विवेक के आगमन के साथ शमन को प्राप्त करता है। शुद्ध स्वरूप - प्राप्ति की साधना में रत मुनि को अपने दोष पर रोष होता है । श्रीमद् राजचन्द्र ने 'अपूर्व अवसर' में कहा है अरणिक
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वच्छर -
आचारांग, शीलांक, टीका, अ. 2, उ. 1, सूत्र 190
अ) छण्हं मासाणं - कषायचूर्णि, अ 8, गाथा 85, सूत्र 22
ब) अप्रत्याख्यानावरणानां षण्मासा
- गोम्मट क., गाथा 46
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