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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
पहुँचा है, उस पर यदि हमने क्रोध किया और वह क्रोध यदि हमारे हृदय में बहुत दिनों तक टिका रहा, तो वह वैर कहलाता है।
आग से आग कभी नहीं बुझती, आग को पानी से शान्त किया जाता है, उसी प्रकार प्रतिशोध-रूपी क्रोध-अग्नि को क्षमारूपी जल से शान्त कर सकते हैं।
जिस प्रकार गुरु का शिष्य के प्रति क्रोध और माता का बच्चों के प्रति क्रोध करना सकारात्मक पहलू है, क्योंकि क्रोध के द्वारा वे बच्चों के भविष्य को सुधारने का प्रयास कर रहे हैं, उसी प्रकार प्रतिशोध भी सकारात्मक रूप से निर्माणकारी स्वरूप में जब परिवर्तित होता है, तो वह व्यक्ति और समाज को विकास के क्षेत्र में आगे ले जाता है। ईर्ष्यालु और प्रतिशोध-भाव वाला व्यक्ति खींची गई लकीर को छोटा करने के लिए उसका कुछ भाग मिटाने के अतिरिक्त कुछ नहीं सोचता, जबकि यही प्रतिशोध यदि सकारात्मक हो जाए, तो छोटी लकीर के साथ ही एक उससे लम्बी लकीर खींचकर पहले वाली लकीर को छोटा साबित कर देता है। प्रतिशोध-रूपी क्रोध का यह निर्माणकारी स्वरूप ही मानव-जाति का आदि-अवस्था से विकसित अवस्था तक पहुंचना -इस बात का प्रमाण है।
क्रोध के प्रकार -
क्रोध के आवेग की तीव्रता एवं मन्दता के आधार पर क्रोध के चार भेद किए गए हैं, वे इस प्रकार हैं
1. अनन्तानुबंधी-क्रोध (तीव्रतम क्रोध) -
___ अनन्तकाल से अनुबन्धित 580, अनन्त भवों तक संस्कार-रूप में संयुक्त,581 अनन्त पदार्थों में धारणाजनित, अनन्त संसार का कारणरूप,82
579 क) जल-रेणु-पुढवि-पव्वय-राई-सरिसो चउव्विहो कोहो। – प्रथम कर्मबंध, गाथा-19
ख) एवामेव चउव्विहे कोहे पण्णते तं जहा- पवयराइसमाणे, पुढविराइसमाणे, वालुयराइसमाणे, उदगराइसमाणे ___ -स्थानांगसूत्र - 4/3/311 580 अनन्तान् भवाननुबद्धं - धवला, पु. 6, अ. 1, सूत्र 23
अणंतेसु भवेसु अणुबंध -वही अ) अणंतानुबंधो संसारा -वही ब) अनन्तसंसार कारणत्वा -सर्वार्थसिद्धि, अ. 8, सूत्र 9
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