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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
"जो क्रोधी स्वभाव के होते हैं, उनका विवेक और धैर्य तो नष्ट होता ही है, स्वास्थ्य भी प्रभावित होता है ।" 1576 क्रोध से हमारे स्नायुओं {Nerves} पर बार- बार तनाव आता है, इससे हमारा स्नायविक - संस्थान {Nervous System} दुर्बल होता जाता है। कमजोरी क्रोध के प्रभाव से उत्पन्न होती है। अधिक समय तक भूखा रहने पर भी व्यक्ति चिड़चिड़ा और क्रोधी हो जाता है।
क्रोध का एक स्वरूप : प्रतिशोध
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कषाय और संवेग के रूप में हमने क्रोध की विस्तृत व्याख्या की, क्रोध का एक स्वरूप प्रतिशोध भी है । प्रतिशोध की उत्पत्ति क्रोध से होती है, किन्तु प्रतिशोध की भीषणता क्रोध से अधिक होती है। क्रोधी में वेग होता है, किन्तु क्षणिक होता है । प्रतिशोधी में धारण शक्ति होती है और वह शक्ति सापेक्षिक रूप से स्थायी होती है। "यदि कोई व्यक्ति हमारा अहित करे, तो उसके हित को चोट पहुंचाने की तीव्र इच्छा हमारे मन में उठती है। अहित की इसी प्रेरक - भावना का नाम प्रतिशोध है । " क्रोधावेश में प्राणी अहित करने के लिए आतुर होता है, किन्तु आवेश उतरते ही आतुरता का स्थान, पश्चाताप ले लेता है, किन्तु प्रतिशोध में प्रकटतः आवेश नहीं होता, अप्रकट रूप से जो प्रतिशोधात्मक भाव होता है, वह स्थाई होता है। यह भाव व्यक्ति को तब तक क्रियाशील रखता है, जब तक वह निर्दिष्ट अहितकर कार्य सम्पन्न नहीं कर लेता । प्रतिशोध की भावना अन्य जीवों की अपेक्षा मानव में अधिक होती है, क्योंकि अन्य प्राणियों में मानव जैसी धारणा - शक्ति नहीं होती । अन्य प्राणी क्रुद्ध हो सकते हैं, क्रोधावेश में अपकार भी उनसे हो सकता है, किन्तु तत्काल अपकार के बदले में किया गया अपकार 'प्रतिशोध' नहीं कहलाता । 'प्रतिशोध' वह क्रोध है, जिसका हिसाब-किताब देर तक चलता रहे। प्रतिशोधरूपी. क्रोध की भावना मानव-जाति के हर वर्ग में और हर युग में रही हुई है। राजनीतिक क्षेत्र हो या सामाजिक, व्यावसायिक हो या धार्मिक, अपराध का हो या प्रेम का, हर जगह यह भावना विद्यमान है। हिन्दी - साहित्य के मूर्द्धन्य लेखक आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है- "वैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है ।" 1578 लेख में कहा है- जिससे हमें दुःख
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576 स्वास्थ्य रक्षक, रसवैद्य डॉ. प्रेमदत्त पाण्डेय, पृ. 32
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प्रकाशित मन पत्रिका, लेख- दयानन्द योगशास्त्री, अक्टूबर 1984, पृ. 69
578
चिन्तामणि, "क्रोध", आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, पृ. 138
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