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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व जीना चाहिए। उसी प्रकार, ममत्व के विसर्जन के लिए हृदय में संतोषवृत्ति का उदय होना चाहिए, जबकि व्यावहारिक रूप से ममत्ववृत्ति के त्याग के लिए जैनआचारदर्शन में परिग्रह की सीमा का निर्धारण करना आवश्यक माना गया है। जब ऐसी भावना और वृत्ति उत्पन्न होगी, तभी समत्त्ववृत्ति का विकास संभव हो पाएगा । 284 - वृत्ति का त्याग क्यों ? ममत्व - · वस्तुतः, यह सत्य है कि दुःखों का मूल कारण ममत्ववृत्ति या परिग्रह ही है । जब कोई व्यक्ति अपनी बीमारी को बीमारी के रूप में समझता है, तब उसे दूर करने के उपाय भी करता है और ऐसे व्यक्ति के निरोग हो जाने की सम्भावनाएं रहती हैं, परन्तु यदि कोई रोगी अपनी बीमारी को ही अपनी स्वस्थता समझने लगे, तो फिर वह स्वास्थ्य - प्राप्ति के उपाय क्यों करेगा? तब उसे धन्वंतरि भी निरोग नहीं कर सकेंगे। परिग्रह के सम्बन्ध में हमारी धारणा भी ऐसी ही बन गई है। बड़प्पन या मान - कषाय की रक्षा के लिए हमने परिग्रह की परिभाषा ही बदल ली है । उसे पापों की सूची से निकालकर हम उसे पुण्य का फल मानने लगे हैं । "जो व्यक्ति ममत्व को छोड़कर निःस्पृह हो जाता है, वह चाहे जन से शून्य वन आदि में एकान्त स्थान में अवस्थित हो और चाहे जनसमुदाय से व्याप्त नगरादि में हो, चाहे वह सुखद अवस्था में हो, या दुःखद अवस्था में हो, वह किसी भी प्रकार के बन्ध से रहित होता है। वह सर्वत्र समत्वसुख का ही अनुभव करता है। 553 यह सब इसलिए सम्भव हो सका, क्योंकि परिग्रह हम सबको प्रिय लगता है। उसके प्रति हमारा ममत्व - भाव जुड़ा है। आज उसे ही हमने अपने जीवन का आधार और अपनी महानताओं का मापदण्ड मान लिया है। जिसने जितना अधिक जोड़ रखा होगा, उसे उतना ही ऊँचे आसन पर हम बिठाते हैं और उसे उतना ही सम्मान दिया जाता है । जो भी संग्रह किया जाता है, उसके मूल में ममत्ववृत्ति ही कार्य करती है । ममत्ववृत्ति को पूर्ण करने के लिए बहुत से लोग पाप के मार्ग को अपनाने और अनैतिकता के कार्य को करने में भी हिचकिचाते नहीं हैं, अर्थात् जुआ, व्यभिचार, 553 विजने जनसंकीर्णे सुस्थिते दुःस्थिते ऽपि वा । सर्वत्राप्रतिबद्धः स्यात्संयमी संगवर्जितः ।। Jain Education International ज्ञानार्णव गाथा 854 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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