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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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है, वह दुःख से मुक्त नहीं हो सकता।45 यदि हम अधिक स्पष्ट शब्दों में कहें, तो जैनदार्शनिकों की दृष्टि में ममत्ववृत्ति दुःख की पर्यायवाची है और यही परिग्रह का मूल है।46
जैन आचार्यों ने जिस समत्ववृत्ति की चर्चा की है, उसके मूल में ममत्ववृत्ति का त्याग ही प्रमुख है। यद्यपि ममत्ववृत्ति एक मानसिक तथ्य है, मन की ही एक वृत्ति है, तथापि उसका प्रकटन बाह्य है, अर्थात् उसका सीधा सम्बन्ध बाह्य-वस्तुओं से है। वह सामाजिक-जीवन को दूषित करती है। अतः, ममत्व के प्रहाण के लिए व्यावहारिक रूप में परिग्रह का त्याग या उसकी मर्यादा आवश्यक है। "जो मनुष्य परिग्रहरूपी कीचड़ में फंसकर मोक्ष के लिए प्रयत्न करता है, वह मूर्ख फूलों के बाणों से मानों मेरू पर्वत को खण्डित करना चाहता है। तात्पर्य यह है कि परिग्रह में ममत्वबुद्धि रखने वाले व्यक्ति के द्वारा भी समत्वरूपी मोक्ष-लक्ष्मी को प्राप्त करना असम्भव है।47 सुत्तनिपात में बुद्ध ने कहा है कि ममत्वरूपी आसक्ति ही बंधन है।48 जो भी दुःख होता है, वह सब ममत्वबुद्धि (तृष्णा) के कारण ही होता है।49 आसक्त मनुष्य आसक्ति के कारण नाना प्रकार के दुःख उठाते हैं।50 ममत्वबुद्धि का क्षय ही दुःखों का क्षय है। जो व्यक्ति इस तृष्णा को वश में कर लेता है, उसके दुःख उसी प्रकार समाप्त हो जाते हैं, जैसे कमल पत्र पर रहा हुआ जल-बिन्दु शीघ्र ही समाप्त हो जाता है। गीता में भी ममत्ववृत्ति के त्याग एवं समत्ववृत्ति के विकास को ही मुक्ति का मार्ग बताया गया है। आसक्ति और लोभ नरक का कारण हैं। कामभोगों में आसक्त मनुष्य ही नरक और अशुभ योनियों में जन्म लेता है। सम्पूर्ण जगत् इसी आसक्ति एवं ममत्ववृत्ति के पाश में बंधा हुआ है और इच्छा और द्वेष में सम्मोहित होकर परिभ्रमण करता रहता है। गीताकार ने ममत्व- वृत्ति के विसर्जन का एक उपाय बताया है, वह यह है कि सभी कुछ भगवान् के चरणों में समर्पित कर कर्तृत्व-भाव से मुक्त होकर जीवन
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545 सूत्रकृतांग- 1/1/2 ..
दशवैकालिकसूत्र --6/21
यः संगपंकानिर्मग्नो ऽप्यपवर्गाय चेष्टते। ___ स मूढाः पुष्पनाराचैविभिन्धात्त्रिदशाचतम्।। - ज्ञानार्णव, परिग्रह दोष विचार, 838 548 सुत्तनिपात - 68/5
वही - 38/17 थेरगाथा - 16/734
धम्मपद, 336 552 गीता - 16/16
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