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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
लूट-खसोट, डकैती, चोरी, राष्ट्रद्रोह, स्मगलिंग आदि पाप-कार्यों को करते हैं और संग्रह करते जाते हैं। मात्र मैं और मेरेपन के भाव से जो संग्रह किया जाता है, वह संग्रह अधिक भी हो जाने पर उसे पुण्य का फल नहीं कह सकते।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ममत्ववृत्ति का त्याग जब तक नहीं होगा, तब तक समत्ववृत्ति का विकास नहीं हो सकता। जिस प्रकार थोड़ी-सी आहट और खतरे की आवाज से कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है, उसी प्रकार समत्ववृत्ति के विकास वाला व्यक्ति भी संसार के फैलाव को 'स्व' में निहित कर लेता है और ममत्ववृत्ति का त्याग करता है । समयसार में भी कहा गया है- "परद्रव्य ( परिग्रह) और आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं है, फिर भी अज्ञान के कारण जो परद्रव्य में ममत्ववृत्ति रखता है, वह मिथ्यादृष्टि है, क्योंकि निश्चय से अणुमात्र भी 'मेरा' नहीं है। 54
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निष्कर्षतः, वास्तविक सुख तो ममत्ववृत्ति के त्याग में ही है, क्योंकि इन्द्रियों के इष्ट-अनिष्ट विषयों में व्याकुलता का परिहार करके निस्पृहता या निर्ममत्व को धारण करने वाला व्यक्ति ही वास्तव में समत्ववृत्ति का विकास कर सकता है और अपनी साधना के शिखर पर पहुंच सकता है ।
परिग्रह - संज्ञा के विस्तृत विवेचन में एक चिन्तन यह भी किया गया है कि परिग्रह को यदि सीमित करना है, तो सर्वप्रथम हमारी आवश्यकताओं, इच्छाओं और आकाक्षाओं को सीमित करना होगा। इसके लिए संतोषवृत्ति का विकास करना होगा, क्योंकि परिग्रह तभी बढ़ता है, जब कोई वस्तु हमें अच्छी लगती है और हम उस पर अपना ममत्व आरोपित कर उसे अपने अधिकार में ले लेते हैं, चाहे वह आवश्यक हो या अनावश्यक, अर्थात् अच्छा लगना ही परिग्रह को बढ़ाता है, अतः इस परिग्रह से बचने के लिए हम यह प्रयास अवश्य कर सकते हैं कि जब भी अच्छी लगने वाली कोई वस्तु हम ग्रहण कर रहे हैं, उस समय यह सोचें कि क्या इस वस्तु के बिना भी काम चल सकता है ? अगर चल सकता है, तो उसे कभी भी न खरीदें, क्योंकि यही अपरिग्रह का मूल है। संतोष अपरिग्रह का बीज है और सुखी जीवन इसका फल ।
1554 ववहारभासिदेण दु परदव्वं मम भांति अविदिदत्था ।
जाणंति णिच्छण दु ण य मह परमाणुमित्तमवि किंचि । । समयसार, गाथा 324
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