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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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साधनों को जुटाने में धनसंचय की प्रमुख भूमिका रहती है। धनार्जन स्वरक्षा की दृष्टि से व्यक्ति को आश्वस्त करता है। उसके द्वारा वह आवास, वस्त्र, अन्न, अस्त्र-शस्त्र आदि विभिन्न उपकरण जुटाकर अपने जीवन को मृत्युपर्यन्त निरापद एवं सुखी बनाना चाहता है, इसीलिए धनार्जन की प्रवृत्ति मानव में इतनी गहरी चली गई है कि इसके लिए वह उचित-अनुचित तरीकों का उपयोग करने में भी हिचकिचाता नहीं है।
धनार्जन और धनसंचय अपने-आप में बुरे नहीं हैं। केवल धन के अर्जन और संचय के तौर-तरीके उचित और धर्म-संगत होना चाहिए। धन का संचय अधिक हो जाए, तो उसका दान किया जाना चाहिए, अन्यथा वह हमें ही ले डूबता है। मनुष्य का अधिकार केवल उतने ही धन पर है, जितने से उसकी भूख मिट जाए। अधिकं संपत्ति का संग्रह दूसरे के हक पर डाका डालने के समान है।
भारतीय चिंतकों ने सदा से ही इस बात को माना है कि एक अच्छे उद्देश्य के लिए भी हम बुरे साधनों को जितना अपनाते हैं, तो उतना हमारा साध्य भी दूषित हो जाता है, अतः धन की उपलब्धि के लिए भी अनैतिक साधनों का उपयोग वर्जित किया गया है। 'धन के उपार्जन के संदर्भ में नैतिक मूल्यों का अर्थ है कि- (1) धनार्जन केवल व्यक्तिगत इच्छाओं की संतुष्टि के लिए ही न किया जाए, अपितु उसकी भागीदारी दूसरों के साथ भी हो, इसलिए 'दान' को महत्त्व दिया गया है। 538 (2) केवल उतना ही धनोपार्जन किया जाए, जो यथार्थ आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक हो,539 क्योंकि महाभारत में तो स्पष्ट कहा गया है कि भौतिक दरिद्रता एक बुराई और पाप की अवस्था है। 540 मनुष्य के अपने सभी सद्गुण तभी चरितार्थ हो पाते हैं, जब उसके पास धन होता है, अतः यह कहा जा सकता है कि धर्म, सुख, साहस, ज्ञान और गौरव धन से ही निःसृत हैं। तात्पर्य यह है कि मनुष्य को अपनी और अपने परिवार की मूल आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए धनोपार्जन आवश्यक है। यह धनोपार्जन उसे स्वयं अपने परिश्रम से और धर्मानुसार ही करना चाहिए।
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महाभारत - 12-121-22 भागवत - 7-14-6 महाभारत - 12/8/14 व्ही - 12/8/21
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