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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
बंधे हुए, अन्त में मरने के बाद नरक में जाते हैं।"535 धन-अर्जन का वहाँ तक विरोध नहीं है, जहाँ तक उसके साथ शोषण की दुष्प्रवृत्ति नहीं जुड़ती है। सम्पदा के अर्जन के साथ जब हिंसा, शोषण और संग्रह की बुराइयाँ जुड़ जाती हैं, तभी वह अनैतिक बनता है, अन्यथा नहीं। भारतीय संस्कृति का आर्थिक आदर्श यह रहा है -"शत हस्त समाहर-सहस्त्र हस्त विकीर्ण', अर्थात् सौ हाथों से धन इकट्ठा करो और सहस्त्र हाथों से बांट दो। समाज-जीवन में शान्ति तभी सम्भव है, जब सम्पदा का उपभोग, संग्रह और वितरण नियन्त्रित हो।"536
व्यक्ति को अपनी जैविक आवश्यकताओं के लिए श्रम करना पड़ता है, उसे श्रम से उपार्जित सम्पत्ति के भोग का भी अधिकार है, किन्तु उसको स्वामित्व का अधिकार नहीं। श्रम के द्वारा हमारी ऊर्जा-शक्ति नष्ट होती है। उसकी पूर्ति के लिए आहार का भोग आवश्यक है, किन्तु यदि हम भावी आवश्यकता की पूर्ति के लिए संचय करते हैं, तो यह दूसरे के अधिकारों का हनन है। भारतीय संस्कृति में ईशावास्योपनिषद् में कहा गया है-“तुम त्याग-बुद्धिपूर्वक भोग करो, इससे दो बातें स्पष्ट होती हैंधनार्जन में हमने हमारी शक्ति का जितना व्यय किया है, उसकी पूर्ति के लिए ही हमें भोग का अधिकार है, उससे अधिक नहीं, क्योंकि त्याग के बाद ही भोग सुखद लगता है।" 537 मल-विसर्जन के बाद ही भोजन के आस्वाद का आनन्द आता है। दूसरे यह कि विश्व में जो साधन-सामग्री है, उस पर विश्व के समस्त प्राणियों का अधिकार है, अतः उस पर केवल अपना अधिकार मानकर उसका संचय करना या उपभोग करना सामाजिक, आध्यात्मिक और आर्थिक-दृष्टि से अपराध ही है, इसीलिए जैनदर्शन में यह कहा गया है कि धन का अर्जन सांसारिक-जीवन का अनिवार्य भाव है, फिर भी उसकी एक मर्यादा होना चाहिए, क्योंकि मर्यादा से अधिक संचय करना नैतिक एवं धार्मिक-दृष्टि से अनुचित है।
धन के संचय से अभिप्राय जीवन के भौतिक साधनों से है। मनुष्य अधिकतम समय तक जीना चाहता है, स्वयं की सुरक्षा चाहता है, इसलिए
535 उत्तराध्ययनसूत्र - 4/2 536 जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-2,
-डॉ. सागरमल जैन, पृ.240 537 ॐ ईशावास्यमिद सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत।
तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्यस्विहतमृ।। - ईशावास्योपनिषद, गाथा-1
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