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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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गुणों की चर्चा करते हुए न्याय-नीतिपूर्वक धन के उपार्जन को श्रावक का एक कर्त्तव्य माना है। गृहस्थ-जीवन में धन या वैभव की भी आवश्यकता होने के कारण श्रावक का एक विशेषण 'न्यायसम्पन्नविभव' भी रहा है, अर्थात् नीतिमान् गृहस्थ को सर्वप्रथम स्वामीद्रोह, मित्रद्रोह, विश्वासघात तथा चोरी आदि निंदनीय उपायों का त्याग करके अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार सदाचार और न्याय-नीति से धन का उपार्जन करना चाहिए, क्योंकि न्याय से उपार्जित किया हुआ धन ही इस लोक में हितकारी होता है। जिसका धन न्यायोपार्जित होता है, वह निःशंक होकर अपने लिए उसका उपयोग कर सकता है और मित्रों एवं स्वजनों को भी यथायोग्य दे सकता है। अपने पुरुषार्थ और बल से उपार्जन करने वाला धीर पुरुष स्वाभिमानी और प्रत्येक स्थिति में निःशंक होता है तथा बुरा कार्य करने वाला या अपनी आत्मा को कुकर्म से मलिन करने वाला पापी व्यक्ति प्रत्येक स्थिति में शंकाशील होता है। नीतिमान् गृहस्थ परलोक के हित के लिए अपने न्यायार्जित धन का विनियोग सप्त-क्षेत्ररूपी सत्पात्र में कर सकता है तथा दीनों-अनाथों आदि पर अनुकम्पा करके उन्हें दान भी दे सकता है, किन्तु अन्याय से इकट्ठे किए हुए धन से तो दोनों लोकों में अहित ही होता है। अन्याय एवं अनीतियुक्त धनार्जन से कर्ता को इस लोक में वध, बंधन और अपकीर्ति आदि का भय रहता है और परलोक में भी नरकादि दुर्गति में भ्रमण करना पड़ता है, इसलिए न्यायवृत्ति एवं परमार्थदृष्टि से धन-उपार्जन करना ही श्रेष्ठ उपाय है। जैसे मेंढक जलाशयों की ओर एवं पक्षी पूर्ण सरोवर की तरफ स्वतः खिंचे हुए चले आते हैं, वैसे ही शुभकर्म वाले व्यक्ति के पास सभी संपत्तियाँ स्वतः ही चली आती हैं। जो धन धर्मानुसार अर्जित और धर्मानुसार व्यय किया जाता है, वही अर्थ मूल्यवान् होता है, अतः धनोपार्जन का लक्ष्य मात्र अपना सुख, समृद्धि आदि की वृद्धि करना ही नहीं, अपितु श्रमण-ब्राह्मण, दीन, अनाथ, अपंग, गरीब लोगों की सेवा करना भी है।
उत्तराध्ययनसूत्र में बताया गया है कि धन का उपार्जन कैसे किया जाना चाहिए ? इसमें कहा गया है -"जो मनुष्य अज्ञान के कारण पाप-प्रवृत्तियों से धन का उपार्जन करते हैं, वे वासना और वैर (कर्म) से
योगशास्त्र:- 1/47-56 533 योगशास्त्र - 1/46, विवेचना - अनुवादकर्ता – मुनि पद्मविजयजी, पृ. 81 534 भारतीय जीवन-मूल्य, डॉ. सुरेन्द्र वर्मा, पृ. 26
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