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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
सामाजिक - जीवन में धन की आवश्यकता को जैनधर्म ने स्वीकार किया है। इस दृष्टि से जैनधर्म में जहाँ एक ओर पंचमहाव्रतधारी, गृहत्यागी, अपरिग्रही श्रमण वर्ग के लिए पूर्णतया परिग्रह त्याग की व्यवस्था है, वहीं दूसरी ओर, घर-परिवार में रहकर भी मर्यादित प्रवृत्ति करनेवाले अणुव्रतधारी श्रावक के लिए परिग्रह - मर्यादा की भी व्यवस्था है।
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जैन साहित्य में आध्यात्मिक चर्चा के साथ-साथ सामाजिकव्यवस्था के संदर्भ में अर्थ के विषय में जो कुछ उल्लेख प्राप्त होते हैं, उनसे ज्ञात होता है कि श्रेणिक का पुत्र अभयकुमार अर्थशास्त्र का ज्ञाता प्रश्नव्याकरणसूत्र में इस बात का उल्लेख है कि उस काल में 'अत्थसत्थ' अर्थात् अर्थशास्त्र विषयक ग्रन्थ लिखे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति से यह ज्ञात होता है कि भरत का अर्थशास्त्र और नीतिशास्त्र में चतुर था। 28
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जाते थे। सेनापति सुषेण
था ।
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जैनपरम्परा में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को अर्थव्यवस्था का संस्थापक माना गया है, ऋषभदेव ने अपने पुत्र भरत चक्रवर्ती के लिए अर्थशास्त्र का निर्माण किया था । 29 नन्दीसूत्र में कहा गया है कि विनय से प्राप्त बुद्धि से सम्पन्न मनुष्य अर्थशास्त्र तथा अन्य लौकिक- शास्त्रों में दक्ष हो जाते हैं । 530
पूर्वोक्त ग्रन्थों के अतिरिक्त आगमिक - व्याख्या - साहित्य में भी धन सम्बन्धी विस्तृत उल्लेख प्राप्त होते हैं, किन्तु उन सबकी यहाँ चर्चा करना अप्रासंगिक ही होगा ।
जैन - परम्परा में दो प्रकार के धर्मों का विधान किया गया है - (1) श्रमण {मुनि } धर्म और ( 2 ) श्रावक (गृहस्थ धर्म । यह स्पष्ट है कि अर्थ के अभाव में गृहस्थ-ज - जीवन का निर्वाह करना असम्भव है, अतः गृहस्थ के लिए न्याय-नीतिपूर्वक अर्थोपार्जन करना जैन - परम्परा को भी स्वीकार रहा है। जैनाचार्य हरिभद्र 531 और आचार्य हेमचन्द्रजी 532 ने श्रावक के 'मार्गानुसारी
526 ज्ञाताधर्मकथा 1 / 16, अंगसुत्ताणि, खंड -3, लाडनूं, पृ. 4
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प्रश्नव्याकरण 1 / 5, अंगसुत्ताणि, खंड -3, लाडनूं, पृ. - 680
528 जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति - 3 / 77, उपंगसुत्ताणि, खंड-2, लाडनूं, पृ. 426
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आदिपुराण - 16 / 119, उद्धत्- प्राचीन जैन साहित्य में आर्थिक जीवन, पृ. 9
530
नंदीसूत्र - सूत्र 38 गाथा 6 ( नवसुत्ताणि, लाडनूं, पृ 259 )
531 धर्मबिन्दु प्रकरण
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