SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 281
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व नाम पर संग्रह की अभिलाषा समस्या का सही निदान नहीं है, सही निदान है - संग्रह की वृत्ति या स्वामित्व की भावना का त्याग। ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त स्वामित्व की वृत्ति का ही निषेध करता है। उसका नारा है - 'स्वामी नहीं संरक्षक' । धन-अर्जन की वृत्ति एवं धनसंचय की वृत्ति में अंतर 'अर्जन' शब्द का अर्थ है कमाना और 'संचय' शब्द का अर्थ है जोड़कर रखना । वस्तुतः, जीवन-यात्रा के निर्वाह के लिए मानव को भोजन, वस्त्र, आवास आदि की आवश्यकता होती है, अतः जीवन की इन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु धन का अर्जन एवं संचय किया जाता है । दूसरे शब्दों में कहें, तो परिवार का भरण-पोषण और उचित ढंग से निर्वाह के लिए भी धन का अर्जन किया जाता है। धन के संचय के पीछे भविष्य की सुरक्षा को ध्यान में रखा जाता है। भविष्य के लिए धनसंचय कितना करना? आज तक इसकी कोई निर्धारित सीमा नहीं रही है। धनसंचय के प्रति आसक्ति और तृष्णा के कारण मनुष्य सात पीढ़ी तक सुखपूर्वक खा सके, इतने धन का संचय कर लेने पर भी संतुष्ट नहीं हो पाता है । वह, आठवीं पीढ़ी भी सुखपूर्वक रह सके, इसलिए धन का संचय करता चला जाता है। • 524 उत्तराध्ययनसूत्र 4/5 525 कल्पसूत्र, पत्र- 3 275 - 524 " जैनदर्शन अनेकान्तवादी - दर्शन है, वह केवल निवृत्तिपरक दर्शन नहीं है, अपितु इसमें प्रवृत्ति को भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इसमें ‘अपरिग्रहवाद ́ के आदर्श को देखते हुए सामान्य व्यक्ति समझता है कि जैन-धर्मदर्शन में धन का कोई स्थान नही है, क्योंकि उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है- "धन से मोक्ष नहीं मिलता है,' परन्तु दूसरी ओर, जैनपरम्परा इस बात को भी स्वीकार करती है कि प्रत्येक तीर्थंकर की माता चौदह स्वप्न देखती है । उसमें एक स्वप्न लक्ष्मी का होता है तथा धन की देवी लक्ष्मी का स्वप्न कुल में धन की वृद्धि का सूचक माना गया है । साथ ही, जैनधर्म में श्रमणधर्म के साथ-साथ श्रावकधर्म की भी व्याख्या है और श्रावक के लिए तो धन का अर्जन एवं संचय आवश्यक है 1 जैनधर्म में अपरिग्रहवाद के साथ-साथ श्रावक के लिए परिग्रह - परिमाण का सिद्धान्त भी प्रस्तुत किया गया है। इससे प्रतिफलित होता है कि 525 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy