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________________ 270 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व उसके पत्ते एवं अंकुर हैं, शील उसकी शोभा है, संवर उसका फल है, बोधि उसका बीज है और मेरूशिखर के समान मोक्षमार्ग उसका श्रेष्ठ शिखर है, अतः साधक को शिखररूपी मोक्ष को प्राप्त करने के लिए अपरिग्रह का पूर्णरूपेण पालन करना चाहिए। ज्ञानसार में कहा है- 'परिग्रह का त्याग करते ही साधु के सारे पाप क्षय हो जाते हैं, जिस तरह पाल टूटते ही तालाब का सारा पानी बह जाता है।08 संतोषवृत्ति और अपरिग्रह संतोषरूपी महान् गुण अपनी आत्मा में प्रवेश कर जाए, तो परिग्रह की समस्या स्वतः ही समाप्त हो जाती है। जब संतोष आ गया, तो फिर वस्तु को प्राप्त होने में भी संतोष रहता है और वस्तु के न होने में भी संतोष रहता है। कोई अशान्ति नहीं, कोई अशुद्ध चिन्तन नहीं। सारी अशान्ति वहीं है, जहाँ संतोष नहीं है, क्योंकि असंतोष के कारण ही अन्याय से अर्थोपार्जन किया जाता है, मन में यह भाव सदा बने रहते हैं कि किस प्रकार से ज्यादा से ज्यादा धन प्राप्त किया जा सके। ऐसा व्यक्ति एक ही नहीं, भावी पीढ़ियों की चिन्ता भी करता है। बस, इसी चिन्तन के साथ पतन का मार्ग प्रारंभ हो जाता है। "सगरचक्रवर्ती के साठ हजार पुत्र हुए, तब भी उसे तृप्ति नहीं हुई। कुचिकर्ण के पास बहुत-से गायों के गोकुल थे, फिर भी उसे संतोष नहीं हुआ, तिलकसेठ के पास अनाज के अनेक गोदाम भरे थे, फिर भी उसकी तृप्ति नहीं हुई और नंदराजा को सोने की पहाड़ियाँ मिलने पर भी संतोष नहीं हुआ, इसलिए परिग्रह कितना भी कर लो, वह असंतोष का ही कारण है,509 साथ ही, धनासक्त मम्मण वणिक् के पास अपार धन था, पर धनलोलुपता एवं असंतोषवृत्ति के कारण उसकी दुर्गति हो गई, इसलिए कहा गया है- असंतोष भी संचयवृत्ति तथा तद्जन्य दुःखों का कारण है। 10 श्रावक के बारह व्रतों में 'स्थूल परिग्रह विरमणव्रत' और 'उपभोग-परिमाणवत' इच्छा परिसीमन का एक व्यावहारिक रूप है। इसमें 508 त्यक्ते परिग्रहे साधोः, प्रयाति सकलं रज: पालित्यागे क्षणादेव, सरसः सलिलं यथा ज्ञानसार- 5/197 509 तृप्तो न पुत्रैः सगरः, कुचिकर्णों न गोधनैः।। न धान्यैस्तिलकश्रेष्ठी, न नन्दः कनकोत्करै।। -- योगशास्त्र-2/112 510 असंतोषमविश्वासमारंभं दुःखकारणम्। - वही- 2/106 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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