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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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अपरिग्रहव्रत की पाँच भावना06 -
एक श्रमण के लिए अपरिग्रह व्रत पालन हेतु निम्न भावनाओं का विधान किया गया है - पाँचों इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति का निषेध अथवा मनोज्ञ या अमनोज्ञ स्पर्श, रस, गंध, रूप तथा शब्द पर समभाव रखना। ये भावनाएँ इंद्रियों के विषय में आसक्ति का निषेध करती हैं। एक मुनि को इन्द्रिय-विषयों में आसक्ति और कषायों के वशीभूत नहीं होना चाहिए। यही उसकी सच्ची अपरिग्रहवृत्ति है।
आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में सूत्रकार कहते हैं कि यह तो संभव नहीं है कि इन्द्रियाँ अपने विषय को ग्रहण न करें, अर्थात् यह सम्भव नहीं कि कान शब्दों को ग्रहण न करें, यह भी सम्भव नहीं कि आँख रूप का ग्रहण न करे, नाक गन्ध का ग्रहण न करे, जीभ स्वाद का अनुभव न करे तथा त्वचा स्पर्श से सदा दूर रहे। ऐसी स्थिति में साधु के लिए एक ही मार्ग शेष रह जाता है कि वह पाप से बचने के लिए उन विषयों में रागभाव या द्वेषभाव न करे। इस प्रकार आचरण करता हुआ साधक परिग्रह के पाप से बच जाता है। अपरिग्रहवृत्ति संवर रूप श्रेष्ठ वृक्ष है। भगवान् महावीर का परिग्रह निवृत्ति का उपदेश उसी अपरिग्रहरूपी वृक्ष का फैलाव है, सम्यक्त्व उसका मूल है, घृति उसका कन्द है, विनय उसकी वेदिका है, तीनों लोकों में व्याप्त यश उसका स्कन्ध है, पांच महाव्रत उसकी विशाल शाखाएं हैं, भावनाएँ उसकी त्वचा है, शुभ ध्यान, प्रशस्त योग एवं ज्ञान
506 पंचेन्द्रियविषयानि सन्तिमनोज्ञामनोज्ञानि नित्यम्। __रागद्वेषं जहाति भावनाऽपरिग्रहस्यपंच ।। -उपासकाध्ययन 9/49 507 (क) न सक्का न सोउं सदा, सोतविसयमाणया।
रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खु परिवज्जए ।। 131 ।। नो सक्का रूवमद्दटुं : चक्खुविसयमागयं । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ।। 132।। न सक्का गंधमग्धाउं, नासाविसयमागयं। रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ।। 133 ।। न सक्का रसमस्साउं, जीहाविसयमागयं। रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ।। 134 ।। न सक्का फासमवेएउं, फासविसयमागयं । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्ख परिवज्जए || 135||
- आचारांगसूत्र, द्वितीय श्रुतस्कन्ध अ.15, सू. 790, गाथा 131-135 (ख) सोइंदियरागोवरई, चक्खिदियारागोवरई, घाणिंदियरागोवरई, जिमिंदियरागोपरई, फासिंदियरागोवरई।"
- समवायांगसूत्र – 25 (ग) आचारांग चूर्णिसम्मत विशेष पाठ, टि., पृ. 281
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