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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
दिगंबर ग्रंथ 'उपासकाध्ययन' में परिग्रह - परिमाण - अणुव्रत में
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विक्षेप उत्पन्न करने वाले पांच अतिचारों का वर्णन भी मिलता है, जो निम्न है -
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(1) अतिवाहन, ( 2 ) अतिसंग्रह ( 3 ) अतिविस्मय (4) अतिलोभ और (5) अति भारवाहन ।
1.
अधिक लाभ की आकांक्षा में शक्ति से अधिक दौड़-धूप करना, दिन-रात उसकी आकुलता में उलझे रहना और दूसरों से भी नियम - विरुद्ध अधिक काम लेना 'अतिवाहन' है ।
2. अधिक लाभ की इच्छा से उपभोक्ता वस्तुओं का अधिक समय तक संग्रह करके रखना, अर्थात् मुनाफाखोरी या जमाखोरी की भावना रखकर संग्रह करना 'अतिसंग्रह है।
3. अपने अधिक लाभ को देखकर अहंकार में डूब जाना और दूसरों के अधिक लाभ में विषाद करना, जलना - कुढ़ना 'अतिविस्मय' है । अपनी निर्धारित सीमा को भूल जाना या उसे बढ़ाने की भावना करना भी इसी में शामिल है।
4.
मनचाहा लाभ होते हुए भी अधिक लाभ की आकांक्षा करना, क्रय-विक्रय हो जाने के बाद भाव घट-बढ़ जाने से अधिक लाभ की सम्भावना को अपना घाटा मानकर संक्लेश करना 'अतिलोभ' है ।
5. लोभ के वश होकर किसी पर न्याय-नीति से अधिक भार डालना तथा उसकी सामर्थ्य से अधिक अपना हिस्सा, मुनाफा, ब्याज आदि वसूल करना 'अति- भारवाहन है ।
अतः, स्पर्शनादि पांचों इन्द्रियों के योग्य भोग - परिभोग की वस्तुओं में विशेष मूर्च्छा का होना तथा की गई मर्यादा को भूल जाना - इस प्रकार परिग्रह परिमाणव्रत के पांच अतिचार हैं । व्रतधारी श्रावक-श्राविकाओं को ये अतिचार न लगे, इसकी सावधानी रखना चाहिए ।
505 अतिवाहनादिसंग्रहं द्रव्यसंग्रहाति भारारोपणं । पंचाक्षविषयमूर्च्छा मर्यादा विस्मृति पंचात्याः । ।
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उपासकाध्ययन- 9/51
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