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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 267 1. क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रम - क्षेत्र का अभिप्राय है- खुली भूमि (खेत, बगीचा) और वास्तु का अभिप्राय वह भूमि, जिस पर मकान आदि बना हो। इसे अंग्रेजी में Open area और Covered area कहा जाता है। दोनों प्रकार की भूमियों की जितनी सीमा व्रत ग्रहण करते समय निश्चित की है, उसे बढ़ा लेना। 2. हिरण्य-सुवर्णप्रमाणातिक्रम- चाँदी-सोना आदि मूल्यवान् धातुओं की मर्यादा का उल्लंघन करना। 3. द्विपद-चतुष्पद प्रमाणातिक्रम- दास-दासी तथा पशु सम्बन्धी मर्यादा का अतिक्रमण करना। 4. धनधान्यप्रमाणातिक्रम- मणि, मुक्ता एवं धन (पशुधन), धान्य (अनाज) का प्रमाण बढ़ाना। धन का अभिप्राय आज के युग में नकद रुपया, बैंक-बेलेन्स, शेयर आदि भी है। 5. कुप्यप्रमाणातिक्रम- वस्त्र, पात्र, शय्या, आसन आदि गृहोपकरण सम्बन्धी मर्यादा का उल्लंघन करना। भगवान् महावीर ने संग्रह और ममत्व-रूप परिग्रह का गृहस्थ के लिए सर्वथा निषेध नहीं किया है, सबसे पहले इच्छा को परिमित करने के लिए उपदेश दिया है; ज्यों-ज्यों इच्छा कम होती जाती है, त्यों-त्यों संग्रह और ममत्व भी कम होता जाता है। उपर्युक्त पांचों अतिचारों का मूल भाव यही है कि गृहस्थ अपनी आवश्यकता से अधिक न तो भूमि, मकान आदि रखे, न धन-धान्यं का संग्रह करे और न ही मर्यादा से अधिक पशु आदि रखे। धार्मिक दृष्टि से भी सर्व साधारण को उतनी ही सामग्री रखना चाहिए, जिससे जनता में आलोचना न हो तथा दूसरे उससे वंचित न हों और अपना कार्य भी सुचारू रूपेण चल सके। 503 तयाणंतरं च णं इच्छा-परिमाणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा तंजहा - खेत्तवत्थु-पमाणाइक्कमे, हिरण्ण, सुवण्ण, पमाणाइक्कमे, दुपय-चंउप्पय-पमाणाइक्कमे, घण-धन्न-पमाणाइक्कमे, कुविय-पमाणाइक्कमे । - उपासकदशांगसूत्र-1/45 504 क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदास कुप्यप्रमाणाति क्रमाः । - तत्त्वार्थसूत्र- 7/24 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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