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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
विचारणा में गृहस्थ साधक को नौ प्रकार के परिग्रह की मर्यादा निश्चित करना होती है। 502
1. क्षेत्र- कृषि भूमि अथवा अन्य खुला हुआ भूमि-भाग। 2. वास्तु- मकान आदि अचल सम्पत्ति । 3. हिरण्य- चाँदी अथवा चाँदी की मुद्राएँ। 4. स्वर्ण- स्वर्ण अथवा स्वर्ण मुद्राएँ। 5. द्विपद- दास, दासी, नौकर, कर्मचारी इत्यादि। 6. चतुष्पद-पशुधन, गाय, घोड़ा, बकरी आदि । 7. धन- चल सम्पत्ति। 8. धान्य- अनाजादि। 9. कुप्य- घर-गृहस्थी का अन्य सामान ।
हर एक गृहस्थ का यह कर्तव्य है कि वह इन सभी वस्तुओं की अपने लिए सीमा निर्धारित करे, उस सीमा का उल्लंघन न करे और यदि संभव हो, तो उस सीमा को वस्तुओं के परिप्रेक्ष्य में और कम करता जाए।
एक बार यदि गृहस्थ अपने लिए सीमा निर्धारित कर लेता है, तो उसे इस परिग्रह-परिमाणव्रत को 'मनसा, वाचा, कर्मणा' निभाने का प्रावधान है। गृहस्थ इस व्रत को कृत और कारित- दोनों ही तरह से अपनाता है, किन्तु इसके अनुमोदन के लिए स्वतंत्र होता है।
परिग्रह-परिमाण-व्रत के पांच अतिचार -
जहाँ जैनधर्म में अन्य व्रतों के परिप्रेक्ष्य में कुछ अतिचारों की गणना की गई है, वहीं परिग्रह-परिमाण-व्रत के भी पांच अतिचार बताए गए हैं -
उपासकदशांगसूत्र तथा तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि –(1) क्षेत्र-वास्तु (2)सोना-चाँदी (3) धनधान्य (4) दास-दासी तथा (5) कुप्य का प्रमाण बढ़ा लेना परिग्रहाणुव्रत के अतिचार हैं, जो इस प्रकार हैं -
502 क्षेत्रवास्तु धनधान्यं कुप्यभाण्डदासदासीकनकम्
हिरण्यादि वस्तुषु मामू परिग्रह प्रमाणव्रतम्। -उपासकाध्याय सूत्र-9/50
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