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________________ जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व 265 धन-धान्यादि परिग्रह अल्प-से-अल्प करे,499 इसीलिए अपरिग्रहाणुव्रत को परिग्रह-परिणामव्रत अथवा इच्छापरिमाणवत अथवा स्थूल परिग्रह विरमणव्रत भी कहते हैं। परिग्रह की तृष्णा को अपने लिए अहितकर समझकर अंतरंग और बहिरंग- सभी प्रकार के परिग्रह के प्रति ममत्व-भाव हटाना, परिग्रह का भार कम करने के उपाय करना और अपनी शक्ति के अनुरूप उनकी अधिकतम सीमा निर्धारित करके उससे अधिक संग्रह का त्याग कर देनायही 'परिग्रह-परिमाण-अणुव्रत' है। यह अपनी "अंतहीन इच्छाओं को सीमित करने का कौशल है, अतः इसका दूसरा नाम 'इच्छा-परिमाणवत' भी है।500 ___ परिग्रह जीवन निर्वाह का आवश्यक साधन है, लेकिन यह साधन भी यदि साध्य ही बन जाए, तो साधन की सम्भावना ही नहीं रहती है। जीवन में प्रगति किसी भी एक आदर्श की ओर हो सकती है, लेकिन जब जीवन में विभिन्न आदर्शों की स्थापना एक साथ कर ली जाती है, तो निश्चय ही जीवनपथ विकृत हो जाता है और साधक को किसी भी लक्ष्य पर पहुंचाने में समर्थ नहीं रहता। भौतिक समृद्धि की उपलब्धि और आध्यात्मिक-विकास- दोनों को एक साथ आदर्श नहीं बनाया जा सकता वस्तुतः, वस्तुओं का परिग्रह जड़ है, उसमें हमारे शुद्ध चैतसिक स्वरूप को बाधा पहुंचाने का सामर्थ्य भी नहीं है, पर जब उन वस्तुओं के प्रति अपेक्षाबुद्धि, परिग्रहासक्ति, परिग्रह-तृष्णा या परिग्रह-संग्रह की इच्छा जाग्रत हो जाती है, तो वह साधना में बाधक बनती है, इसलिए सूत्रकार ने परिग्रह परिमाण व्रत कहने की अपेक्षा इच्छापरिमाणव्रत कहा है। एक अल्प-परिग्रही व्यक्ति में भी यदि परिग्रह-इच्छा मौजूद है, तो वह साधना में प्रगति नहीं कर सकता। कहा गया है- "समूचे संसार में परिग्रह के समान प्राणियों के लिए दूसरा कोई बंधन नहीं है।"501 साधना की दृष्टि से इच्छाओं का परिसीमन. अति आवश्यक है। जैन धर्मदर्शन इच्छा, तृष्णा या ममत्व के परिसीमन के प्रति अत्यधिक जागरूक रहा है। इच्छा का सम्बन्ध बाह्य परिग्रह से ही है, अतः उसका परिसीमन भी आवश्यक है। "जैन 499 संसारमूलमारम्भास्तेषां हेतुः परिग्रहः । तस्मादुपासकः कुर्यादल्पमल्पं परिग्रहम्।। - योगशास्त्र- 2/110 500 उपासकदशांगसूत्र - 1/45 नत्थि एरिसो पासो पडिबंधो अत्थि सव्वजीवाणं सव्वलोए - प्रश्नव्याकरणसूत्र-1/5 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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