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________________ 264 जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व इसलिए धन का अधिक संग्रह करना ही नहीं। यदि किया भी है, तो उसको दान देकर ममत्वबुद्धि का त्याग करना चाहिए। 3. उपभोक्ता-संस्कृति और अपरिग्रह - ___ उपभोक्ता-संस्कृति और अपरिग्रह परस्पर विरोधी विचारधाराएं हैं। उपभोक्ता-संस्कृति कहती है - अधिक से अधिक वस्तुओं का प्रयोग करो। इसके विपरीत, अपरिग्रह की विचारधारा कहती है- कम-से-कम वस्तुओं का प्रयोग करो। उपभोक्ता-संस्कृति भोगवाद की ओर प्रवृत्त करती है और अपरिग्रह आत्मसंयम की ओर। एक, अनन्त इच्छाओं की अन्तहीन पूर्ति का प्रयास है, तो दूसरा, इच्छाओं का परिसीमन। उपभोक्ता-संस्कृति भौतिक इन्द्रियों की संतुष्टि के प्रयासरूप सुखवाद है, जबकि अपरिग्रह आत्मवादी-इन्द्रिय-निग्रह। उपभोक्ता-संस्कृति भौतिक-विकास से जुड़ी हुई है और अपरिग्रह आत्मिक-विकास से। जैन विचारधारा भोगवाद की इस समस्या के प्रति प्राचीनकाल से सावधान रही है। तपस्या और निवृत्ति की भावना के साथ-साथ भगवान् महावीर ने पांच महाव्रतों के रूप में मनुष्य को एक आदर्श दर्शन दिया है। पांच व्रतों में अपरिग्रह भोगवाद की समस्या का सही निदान है। आज के भागदौड़, संघर्षरत और तनावपूर्ण जीवन का मुख्य कारण यही है कि हमने अपनी इच्छाओं को बहुत बढ़ा लिया है। इच्छाएं महावीर के युग से कई गुना अधिक बढ़ चुकी हैं। इस अभिशप्त असंतृप्त जीवन से मुक्ति पाने का एक ही रास्ता है, वह है- उपभोक्ता-संस्कृति के मोह का परित्याग और इच्छाओं का परिसीमन, अर्थात् अपरिग्रह। 4. परिग्रहपरिमाणव्रत - जिस प्रकार अपरिग्रह एक महाव्रत के रूप में मुनियों के लिए प्रस्तुत किया गया है, उसी प्रकार अपरिग्रहाणुव्रत गृहस्थों के लिए विहित है। श्रमण साधक के लिए सम्पूर्ण परिग्रह का परित्याग है, लेकिन गृहस्थ के लिए यह संभव नहीं है, अतः गृहस्थ को परिग्रह से अधिकाधिक बचने के लिए परिग्रह की केवल सीमा रेखा निश्चित की गई है। क्योंकि सभी आरम्भों का मूल कारण परिग्रह है, इसलिए श्रमणोपासक या श्रावक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004097
Book TitleJain Darshan me Vyavahar ke Prerak Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages580
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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