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जैनदर्शन में व्यवहार के प्रेरकतत्त्व
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होता है। उसी प्रकार, जब तक वस्तु के प्रति त्याग की भावना विकसित नहीं होती, तब तक ममत्व बना रहता है और परिग्रह बढ़ता ही जाता है। परिग्रह को कम करने के लिए या तो वस्तु का त्याग कर दो, या उसका दान कर दो। इससे जो वस्तु हमारे लिए संग्रह योग्य और परिग्रह-रूप थी, वही वस्तु दूसरों की आवश्यकता की पूर्ति का साधन बन जाती है।
वस्तुतः, त्याग और दान में अन्तर है। जो हमारे लिए अनावश्यक, अनुपयोगी, अहितकारी है, उसका त्याग किया जाता है, किन्तु जो वस्तु दूसरे के लिए आवश्यक, उपयोगी और हितकारी है, उस वस्तु का दान किया जाता है। उपकार के लिए वस्तु का देना दान है। दान में परोपकार मुख्य होता है, किन्तु त्याग में स्वयं का उपकार मुख्य होता है, परन्तु प्रस्तुत प्रसंग में दोनों ही महत्त्व रखते हैं। त्याग और दान-दोनों से परिग्रह-वृत्ति कम होती है और ममत्व-भाव भी कम होता है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति किसी वस्तु को तभी दे सकता है, जब उस वस्तु के प्रति उसका ममत्व छूट जाए।
ईशावास्य उपनिषद् के प्रथम श्लोक में ही स्पष्ट कहा गया है.98 -
ईशावास्यमिदं सर्व ‘यत्किंच जगत्यां जगत् । तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्यास्विद्वनम् ||1||
अर्थात्, इस चराचर जगत् में जो भी कुछ है, वह सब ईश्वर का है, अतः लब्ध (प्राप्त) वस्तु का त्याग-बुद्धिपूर्वक ही भोग करें, किसी अन्य के धन का लोभ न करें, क्योंकि यह धन तुम्हारा नहीं है। इसमें त्याग और अलोभ के लिए स्पष्ट निर्देश हैं, जो 'अपरिग्रह' व्रत का सार है।
- रस्किन ने भी कहा है-"धनी आदमी धनी (धन का स्वामी) तभी होता है, जब वह धन का दान कर पाता है, नहीं तो वह गरीब ही होता है, अर्थात् आप धनी उसी दिन हैं, जिस दिन आप धन को छोड़ पाते हैं। अगर आप धन को नहीं छोड़ पाते, तो आप गरीब हैं। दान मालकियत का लक्षण है और संग्रह गरीबी का।" कहते हैं, बहती सरिता सुन्दर और पवित्र होती है, पर इकट्ठा पानी/ संग्रहित जल दूषित और गंदा होता है, अतः संग्रहित धन अधिक दिन तक रहेगा, तो वह भी नष्ट हो सकता है,
498 ईशावास्यान उपनिषद्, श्लोक 1
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